________________
| चौथा पाल : सुपात्रदान
मानव-जीवनरूपी वृक्ष के छह फलों में तीसरे फल सत्वानुकम्पा की चर्चा हम कर आये हैं। अब हम चौथे फल सुपात्रदान की चर्चा करेंगे। 'शुभ' यानि उत्तम। 'सु' का अर्थ है-अच्छा। ‘पात्र' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है- .
“पाकारेणोच्यते पापं, त्रकारस्त्राणवाचकः।
अक्षरद्वयसंयोगे, पात्रमाहुर्मनीषिणः॥" -याज्ञवल्क्य स्मृति 'पा' का अर्थ है-पाप। 'त्र' का अर्थ है-रक्षा करना। इन दोनों अक्षरों के संयोग से पात्र शब्द की व्युत्पत्ति होती है, अर्थात् जो आत्मा को पाप से बचाता है, वह पात्र है। 'सु' शब्द पात्र के साथ लगाने से सुपात्र बन जाता है। अर्थात् उत्तम कोटि का पात्र। पात्र परीक्षा
पात्र शब्द में से ही सुपात्र, कुपात्र और अपात्र शब्द निष्पन्न हुए हैं। इसलिए पात्र शब्द का लक्षण भलीभाँति समझ लेने पर सुपात्र, अपात्र और कुपात्र का लक्षण भी शीघ्र ही समझ में आ जायेगा, फिर भी आचार्यों ने सुपात्र, कुपात्र और अपात्र के पृथक्-पृथक् लक्षण सर्वसाधारण के समझने के लिए दिये हैं। जैसे सुपात्र का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार किया है(१) सुपात्र-“सु = अतिशयेन, पापात् त्रायते इति सुपात्रम्।” ।
-जो अपनी आत्मा की पाप से भलीभाँति रक्षा करता है, वह सुपात्र है। जहाँ-जहाँ पापकर्मों के आने का अंदेशा होता है, वहाँ-वहाँ वह अपने आप को सावधानीपूर्वक बचा लेता है। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है-जो पाप में पड़ते हुए संघ (समाज) के व्यक्तियों को धर्म का मार्गदर्शन, प्रेरणा या उपदेश देकर पाप से बचा लेता है, वह सुपात्र है। एक जैनाचार्य ने सुपात्र का लक्षण बताते हुए कहा है- . __“सु = शोभनं पात्रं = स्थानं ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपः क्षमा प्रशम-शील-दयासंयमादि गुणानाम्।"
अर्थात् जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा, शम, शील, दया, संयम