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* तीसरा फल : सत्त्वानुकम्पा : जीवदया *
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प्रातःकाल भगवान के चरणों में पहुँचा मन के भाव बताने के लिए। भगवान ने पहले ही कहा-“हे मेघ मुनि ! रात्रि के समय में मुनि वृत्ति को छोड़कर जाना चाहते हो, ऐसे विचार आये।" “हाँ भंते ! आये।" भगवान ने कहा-“हे मेघ मुनि ! तुम जरा से परीषह से घबरा गए। पर आप अपने पूर्व-भव को याद करो। क्या थे? क्या किया था ?"
मेघ मुनि का पूर्व-भव-मेघ मुनि को सोचते-सोचते जातिस्मरण हो गया। क्या देखते हैं। पूर्व-भव में मैं पाँच हथिनियों का मालिक, यूथपति, जंगल में आग लग गई। सभी प्राणी मौत से भयभीत हैं। मैंने देखा-झाड़-फूस साफ करके एक मैदान । तैयार किया। जब फिर अग्नि लगेगी तब हम सब यहीं पर आकर विश्राम करेंगे। ___ अचानक फिर उस जंगल में आग लग गई। सभी प्राणी वहाँ पर पहुँच गए, जहाँ मैदान तैयार कर रखा है। सब-के-सब वहाँ इकट्ठे हो गए। इतने में खरगोश कहीं से फुदकता हुआ आ गया। मेरे शरीर में खुजली हुई। मैंने अगला पाँव उठाया खुजाने के लिए। जहाँ से पाँव उठाया, वहाँ पर खरगोश आकर बैठ गया। मैंने .फिर पाँव रखना चाहा, किन्तु खरगोश को देखा, विचार आया-'अगर मैंने पाँव रख दिया, यह विचारा मर जाएगा, इसके लिए तो यहीं आग लग जाएगी।' नहीं, मैंने पाँव नहीं रखा, तीन दिन, तीन रात्रि हो गईं, अग्नि शांत हुई, सब प्राणी चले गए, मैंने ज्यों ही अपना पाँव नीचे रखना चाहा, त्यों ही धड़ाम-से मेरा शरीर गिरा, आयुष्य कर्म पूरा हुआ और मैं वहाँ से चलकर दया, करुणा के प्रताप से यहाँ पर राजा के घर में मेघकुमार के रूप में पैदा हुआ। इतना कष्ट उठाया, उस समय घबराया नहीं, परन्तु अब थोड़े से दुःख से घबरा गया। जीवन का परिवर्तन किया। करणी की, अपनी आत्मा का कल्याण किया। यह थी मेघकुमार की करुणा, दया। __ऐसी दया अनुमोदना के योग्य है, कथंचित् उपादेय है, जो परदया, स्वदया की अविरोधी है, पोषक है, जिसमें किसी की हिंसा अंशमात्र नहीं है, परन्तु रक्षारूप है। जैसे-व्रत की मर्यादा में रहते हुए साधु-श्रावकों के द्वारा की जाने वाली रक्षा परदया है।
(७) स्वरूपदया-जो हृदय में मारने के भाव रखकर और बाहर से करुणा को धारण करके, (ईद के) बकरे के समान पालन करता है, वह स्वरूपदया है। जैसे ईद का बकरा बेटे के समान बड़े लाड़-प्यार से पाला जाता है। जैसे मुर्गीपालन,