SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * १०२ * * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * __“धम्मस्स जणणी दया।" -दया धर्म की माता है। अन्य धर्म दया की कोख से ही पैदा होते हैं। “दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण॥" -दया धर्म का मूल है। जिसके दया नहीं, उसका धर्म नहीं। सज्जनता और दयालुता ईमान की दो शाखाएँ हैं। जहाँ पाप होता है, वहाँ अहंकार आ जाता है। इसीलिए सन्त तुलसीदास ने कहा है-जब तक शरीर में चैतन्य सत्ता है, तब तक जीवदया का पालन करना चाहिए। जीव-रक्षा की थी सोलहवें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ के जीव ने पूर्व-भव में मेघरथ राजा के रूप में। वह कथानक इस प्रकार है उदाहरण-इसी जम्बू द्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र में पुष्प कलावती विजय नामक एक प्रान्त-विशेष है। जिसमें सर्व सुविधा सम्पन्न पुण्डरीक नामक एक महानगर था। धनरथ नाम का महाबली राजा वहाँ पर राज्य करता था। इसके दो रानियाँ थीं-एक का नाम था प्रीतिमती और दूसरी का नाम था मनोरमा। . एक समय की बात है कि ग्रैवेयक नाम वाले देवलोक से चवकर वज्रायुध का जीव प्रीतिमती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। उस समय में रानी ने अमृत सम जलवृष्टि करते हुए एक मनोज्ञ एवं सुन्दर मेघ को स्वप्न में देखा। महारानी ने इस शुभ घटना का वर्णन राजा को कह सुनाया। सुनकर राजा ने कहा-“तुम एक महान् प्रतापी और पुण्यवान् पुत्र की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त करोगी।" दूसरी रानी मनोरमा ने भी स्वप्न में एक सुन्दर दृश्य देखा, इस स्थिति का वर्णन भी इस द्वितीय महारानी ने अपने पतिदेव महाराजा की सेवा में प्रस्तुत किया। राजा ने प्रसन्न होकर यही कहा कि "तुम्हारी मंगलमय कोख से भी एक पुत्ररत्न जन्म धारण करेगा, जोकि बलवान् और यशस्वी होगा।" द्वितीय महारानी की कुक्षि में उत्पन्न होने वाला सहस्रायुध का जीव भी ग्रैवेयक नाम के देवलोक से ही चवकर आया था। नव मास और साढ़े आठ रात्रि का गर्भकाल पूर्ण होने पर प्रीतिमती महारानी ने सूर्यसम तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम मेघरथ रखा गया और मनोरमा महारानी ने भी एक सौम्य और सुशील बालक को जन्म दिया, जिसका
SR No.002472
Book TitlePadma Pushpa Ki Amar Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2010
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy