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________________ (3) कषायों की अल्पता तथा तरतम क्षीणता होने से ममत्वभाव का व्युत्सर्ग होता है और उसके स्थान पर समत्वभाव प्रतिष्ठित होता है। मानसिक लक्षण - (1) साधक की आन्तरिक शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। (2) साधक के चित्त में सहज आन्तरिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता व्याप्त हो जाती है। यह प्रफुल्लता चित्त की निर्मलता का परिणाम होती है। (3) साधक में संतोष भावना सहजरूप में दृढ़ हो जाती है। इच्छित पदार्थों की उपलब्धि न होने पर भी चित्त विक्षेपरहित तथा संतुष्ट रहता है। वस्तुत: यह संतुष्टि अथवा मानसिक तोष इच्छाओं के अभाव का परिणाम होता है। मन में संतोष इतना व्याप्त हो जाता है कि साधक की चाह ही मिट जाती है। शारीरिक लक्षण - (1) ज्योतिदर्शन - साधक को मस्तक और ललाट में त्र - जाप के समय ज्योति अथवा प्रकाश दिखाई देने लगता है। मंत्र - (2) तैजस् शरीर बलशाली होने से आभामंडल विकसित हो जाता है, परिणामस्वरूप साधक का स्थूल शरीर भी तेजोदीप्त हो जाता है। शरीर, मस्तक, ललाट पर तेज झलकने लगता है। साथ ही शरीर पुलकित एवं प्रफुल्लित रहता है। (3) साधक की इच्छा-शक्ति विकसित हो जाती है। यह इच्छा-शक्ति अथवा संकल्प-शक्ति सभी कार्यों में सफलता की कुञ्जी है। (4) साधक के लिए सारे भौतिक एवं पौद्गलिक पदार्थ अनुकूल हो जाते हैं। इन लक्षणों से साधक स्वयं अनुभव कर सकता है कि उसे मंत्र - सिद्धि हुई अथवा नहीं। यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मंत्र-सिद्धि का अभिप्राय किसी चमत्कारी सिद्धि से नहीं है, अपितु मंत्र की सफलता या जो साधना वह कर रहा है उसमें परिपक्वता से है। मंत्र की सफलता का मूल सूत्र है कि साधक मंत्र के अक्षरों की साधना करता हुआ, पदों पर पहुँचे और पदों से आगे बढ़कर उन पदों में नियोजित अपनी चैतन्यधारा को स्थूल शरीर की सीमा को पारकर सूक्ष्म अथवा शरीर (प्राण शरीर) में पहुँचा दे, प्राण शरीर को उद्दीप्त कर दे । * मंत्र - शक्ति - जागरण 371
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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