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प्रथम दोनों शुक्लध्यानों का आश्रय एक है-श्रुतज्ञान। आगमों और शास्त्रों में बताया गया है कि प्रथम दो शुक्लध्यानों के अधिकारी श्रुत-केवली, चौदह पूर्वधर आदि विशिष्ट श्रुतज्ञानी होते हैं। पूर्वज्ञान के आश्रय से ही साधक शुक्लध्यान का प्रारंभ करता है। ये दोनों ही सवितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान सहित है। ___ इनमें से पहला शुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्क सविचार, भेदप्रधान है। पृथक्त्व का अर्थ है भेद; वितर्क का अभिप्राय श्रुतज्ञान और विचार का अभिप्राय अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण है।
दूसरा शुक्लध्यान अभेद अर्थात् एकत्व-प्रधान है, इसमें अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण नहीं होता। - इन पारिभाषिक शब्दों का अभिप्राय समझ लेने के बाद यह हृदयंगम करना सरल होगा कि साधक शुक्लध्यान की साधना किस प्रकार करता है।
(1) पृथक्त्ववितर्क सविचार शुक्लध्यान इस शुक्लध्यान में साधक श्रुतज्ञान के आधार पर जीवाजीव पदार्थों का द्रव्य-भाव आदि विविध नयों और दृष्टियों के आलंबन सहित ध्यानावस्थित होता है।
उसका ध्यान भेद-प्रधान होता है। इस ध्यान में वह शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर, एक पर्याय से दूसरी पर्याय
1. (क) शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।
-तत्त्वार्थ सूत्र 9/39 विशेष-मरुदेवी माता, माषतुष मुनि आदि के दृष्टान्त ऐसे हैं कि उन्होंने विशेष ज्ञान, पूर्व आदि के ज्ञान के बिना ही कैवल्य प्राप्त किया है। इतना तो निश्चित है कि क्षपक श्रेणी आरोहण और शुक्लध्यान के बिना कैवल्य नहीं प्राप्त हो सकता। अतः यह समझना उचित होगा कि सामान्यतः तो शुक्लध्यान के लिए पूर्वज्ञान अपेक्षित है; किन्तु उत्कृष्ट भावना वाले साधक, पूर्वज्ञान के अभाव में भी श्रेणी आरोहण और शुक्लध्यान करके कैवल्य प्राप्त कर सकते हैं।
-संपादक 2. वितर्कः श्रुतम्। '
-वही 9/45 3. विचारोऽर्थव्यंजनयोग संक्रान्तिः।
-वही 9/46
* शुक्लध्यान एवं समाधियोग * 301 *