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________________ विचलित ही करता है; अपितु उनको समभावपूर्वक सहता हुआ अपनी साधना में निरत रहता है। (2) असम्मोह-शुक्लध्यानी साधक की श्रद्धा अचल होती है। देव-दानव-गन्धर्व-राक्षस-मनुष्य कोई भी उसे उसकी श्रद्धा से नहीं डिगा सकता। इन्द्र आदि भी अपनी विकुर्वणा से उसे विचलित नहीं कर सकते। (3) विवेक-शुक्लध्यानी साधक का तत्त्व-विषयक विवेक बहुत गहरा होता है। वह जीव को जीव और अजीव को अजीव मानता है। आत्मा और शरीर की पृथक्ता का उसे पूर्ण विश्वास होता है। (4) व्युत्सर्ग-वह सभी प्रकार की आसक्तियों से विमुक्त होता है। उसमें भोगेच्छा और यशेच्छा किंचित् मात्र भी नहीं होती। इन्द्र की विभूति और ऐश्वर्य को भी तृणवत् मानता है, उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता तथा निरन्तर अपने वीतराग भाव में निरत रहता है और उसे बढ़ाता जाता है। इन लक्षणों से शुक्लध्यानी योगी की पहचान की जा सकती है। शुक्लध्यान के आलम्बन ध्यान के सन्दर्भ में आलम्बन साधक के लिए सहायक रूप में होते हैं जिनके सहारे से साधक आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ता है और शिखर पर पहुँचता है। ये आलम्बन' चार हैं (1) क्षमा-शुक्लध्यानी साधक क्रोधविजेता होता है। उसमें उत्तम क्षमा साकार होती है। कैसा भी क्रोध का प्रसंग सामने उपस्थित हो, किन्तु उसके मानस में कभी क्रोध नहीं आता। (2) मार्दव-शुक्लध्यानी साधक मान (कषाय) पर विजय प्राप्त कर लेता है, उसके मन-मस्तिष्क में मान सम्बन्धी विचार भी नहीं आते। (3) आजर्व-शुक्लध्यानी साधक का चित्त अत्यन्त सरल होता है, वह माया (कपट) का पूर्ण रूप से परित्याग कर चुका होता है। (4) मुक्ति-शुक्लध्यानी साधक लोभ से पूर्णतया मुक्त होता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति (निर्लोभता)-इन चार आलम्बनों द्वारा शुक्लध्यानी साधक अपनी साधना में प्रगति करता है। शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है। - 1. ध्यानशतक 69 *298 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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