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जब तपोयोगी साधक इस स्थिति में पहुँच जाता है, इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है तो उसकी इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता तप की आराधना पूर्ण हो जाती है। कषाय प्रतिसंलीनता तप
कषाय चार हैं- (1) क्रोध, (2) मान, (3) माया, (4) लोभ । कषाय ही जन्म-मृत्यु रूप संसार - परिभ्रमण का मुख्य कारण हैं।' देशोनकोटि पूर्व तक महान साधना करके जो फल प्राप्त किया जाता है, वह संपूर्ण उपलब्ध फल अन्तर्मुहूर्त की कषाय द्वारा ही भस्म हो जाता है |
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कषाय अन्तर् की ज्वाला है, भीषण अग्नि है, आध्यात्मिक दोष है। यह अग्नि ठंडी भी है और गरम भी है। माया और लोभ की कषायाग्नि ठंडी है तथा क्रोध और मान की अग्नि गरम है, धधकती ज्वाला है। लेकिन ठंडी और गरम दोनों ही प्रकार की आग आत्मा को परितप्त करती है।
इसीलिए तपोयोगी साधक कषाय प्रतिसंलीनता तप की आराधना द्वारा कषायों पर विजय प्राप्त करता है।
कषायों को विजय करने अथवा कषाय- प्रतिसंलीनता तप की आराधना के दो प्रकार हैं
(1) कषायों के उदय ( आते हुए आवेग ) का निरोध करना; तथा (2) उदय में आये हुए कषायों को विफल ( व्यर्थ - असफल ) . कर
देना ।
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कषाय- प्रतिसंलीनता तप के कषायों के आधार पर चार भेद हैं
(1) क्रोध- कषाय प्रतिसंलीनता तप,
(2) मान - कषाय प्रतिसंलीनता तप,
(3) माया- कषाय प्रतिसंलीनता तप, (4) लोभ - कषाय प्रतिसंलीनता तप ।
आचारांग निर्युक्ति 189
जं अज्जियं चरित्तं देसुण्ण वि पुव्वकोडी |
तं पि कसायमेत्तो नासेइ नरो मुहुत्ते । ।
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा ।
- सूत्रकृतांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, वीरस्तव छठा अध्ययन, गाथा 26
औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30
- निशीथभाष्य 2793
* 250 अध्यात्म योग साधना