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________________ प्रकार साधु के भिक्षा ग्रहण करने से दाता को लौकिक और पारलौकिक लाभ मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र' आदि कई ग्रन्थों में भिक्षाचरी के लिए वृत्तिपरिसंख्यान अथवा वृत्तिसंक्षेप शब्द भी प्राप्त होता है। यद्यपि भिक्षाचरी, गोचरी, माधुकरी वृत्ति और वृत्ति-संक्षेप–इन सभी का भाव समान है किन्तु योग की अपेक्षा से वृत्तिसंक्षेप शब्द अधिक उपयुक्त है। क्योंकि वृत्तिसंक्षेप शब्द की मूल ध्वनि है-वृत्तियों का, मन-वचन-काय और चित्त की वृत्तियों तथा कषाय आदि विभावों का संक्षेपीकरण, उनका जो फैलाव है, विस्तार है उसे समेटना, कम करना, सीमित दायरे में ले आना, उनका संकुचन करना। यह संकुचन गृहत्यागी श्रमण भिक्षाचरी (अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं के साधनों को गृहस्थ श्रावक से प्राप्त करते समय) द्वारा अपनी मर्यादा और अनेक प्रकार के अभिग्रहों से करता है तथा गृहस्थ साधक (योगी) चौदह नियमों को प्रतिदिन ग्रहण करके करता है। दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादा, सीमा, योग्यता, क्षमता और पद के अनुकूल अपनी वृत्तियों का संक्षेपीकरण अथवा संकुचन करते हैं। ___ तपोयोग की साधना में वृत्तियों के संक्षेपीकरण का बहुत महत्त्व है। इससे साधक अपनी असीमित इच्छाओं तथा वृत्तियों और अनिवार्य आवश्यकताओं ' को सीमित कर लेता है। मन-वचन-काय की वृत्ति-प्रवृत्तियाँ सीमित होने से उसका सिन्धु के समान सावधयोग (पाप) बिन्दु के समान रह जाता है। इस प्रकार वृत्तिसंक्षेप तप की साधना करके तपोयोगी त्याग की दृढ़ भूमिका अपने मन-मानस में तैयार करता है। (4) रस-परित्याग तप : अस्वादवृत्ति की साधना किसी भी इन्द्रिय के विषय की ओर मन के राग भाव का न जोड़ना तप है। तपोयोगी रस-परित्याग तप का आचरण करता हुआ जिह्वा अथवा रसना इन्द्रिय के रस-स्वाद के प्रति अनासक्त भाव रखता है, सरस-स्वादिष्ट भोजन की प्राप्ति की इच्छा भी नहीं करता। जहाँ तक सम्भव हो सकता है वह ऐसा आहार ग्रहण नहीं करता। 1. 2. तत्त्वार्थसूत्र 9/19 उवासगदसाओ, पढमं अज्झयण * 242 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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