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________________ आन्तरिक दोष जल जाते हैं, परिणामस्वरूप कर्मदलिक (आवरण) झड़ जाते हैं और आत्मा का वास्तविक स्वरूप, उसके समस्त दिव्य गुण, अनन्त शक्ति प्रगट हो जाती है, वह अपने निजस्वरूप में अवस्थित हो जाती है, कोटि-कोटि सूर्यप्रभा के समान भास्वर हो उठती है और करोड़ों चन्द्रमाओं की ज्योत्स्ना के समान अमृतरूप शांति में स्थिर हो जाती है, अनन्त और अव्याबाध सुख में रमण करती है। आत्मा अपनी स्वाभाविक दशा प्राप्त करता है-तपोयोग की साधना द्वारा। तप के लक्षण व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से 'तप' शब्द की रचना 'तप्' नामक धातु से हुई है। 'तप्' धातु का अर्थ है तपना। अतः आचार्य अभयदेव ने निरुक्त की दृष्टि से तप का लक्षण बताया रस - रुधिर - मांस - मेदास्थि - मज्जा - शक्राण्यनेन तप्यन्ते कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्तः। -स्थानांगवृत्ति 5/1, पत्र 283 अर्थात-जिस साधना के द्वारा शरीर के रस, रक्त, मांस, मेद (चर्बी), अस्थि (हड्डी), मज्जा और शुक्र तप जाते हैं, शुष्क हो जाते हैं अथवा अशुभ कर्म जल जाते हैं, उनका क्षय हो जाता है, उस साधना को तप कहते हैं। आवश्यकसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने तप का यह लक्षण बताया तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः। -आवश्यक मलयगिरि, खण्ड 2, अध्ययन 1 अर्थात्-जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है। दशवैकालिक के चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर का भी यही अभिमत तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठि, नासेतितवुत्तं भवइ। -दशवैकालिक सूत्र-जिनदास चूर्णि अर्थात्-तप उस साधना को कहा जाता है जिसके द्वारा आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियों को तपाया जाता है, नाश किया जाता है। कर्मग्रन्थियों को तपाना, नाश करना और आत्मा का शोधन करना-ये दोनों बातें एक ही हैं। जब कर्म नष्ट हो जायेंगे तो आत्मा शुद्ध हो ही जायेगी। इन दोनों में सिर्फ अपेक्षाभेद है। कर्म की अपेक्षा से कर्मों को क्षय करना तप *232 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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