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जाता है तो वह श्वास-प्रेक्षा करता है। श्वासोच्छ्वास को आते-जाते सिर्फ देखता है। श्वास की गति पर मन को केन्द्रित कर देता है।
दीर्घश्वास शारीरिक और मानसिक रूप से साधक के लिए बहुत लाभकारी है। इससे साधक को प्राणवायु (oxygen) अधिक मिलता है। परिणामस्वरूप उसके रक्त को, फेफड़ों को, शरीर के अन्य संस्थानों को अधिक बल मिलता है, रक्त का शोधन होता है, मानसिक शक्ति बढ़ती है, फेफड़ों (lungs) की सहज मालिस अथवा सुष्ठु व्यायाम होता है और साधक मानसिक तथा शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है।
तैजस् शरीर पर इसका अधिक प्रभाव पड़ता है। इससे सुषुम्ना नाड़ी और नाड़ी संस्थान प्रभावित होता है, नाड़ी शुद्धि होती है, तैजस् शरीर शक्तिशाली बनता है और शक्ति - केन्द्र तथा चक्रस्थान जागृत होते हैं। यह संवेगों पर नियन्त्रण करने में भी सहायक होता है।
लयबद्ध श्वास से ज्ञानशक्ति विकसित होती हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि की सम्भावनाएँ प्रबल होती हैं और आवेग संवेगों की उपशान्ति होती है।
श्वास- प्रेक्षा, साधक की मानसिक एकाग्रता के लिए एक प्रमुख आलम्बन है। मानसिक एकाग्रता से उसे शान्ति का अनुभव होता है, कषायों के आवेग उपशान्त हो जाते हैं, संकल्प - विकल्प साधक को उद्वेलित नहीं कर पाते।
(3) मानसिक संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा
श्वास- प्रेक्षा में अभ्यस्त हुआ साधक और भी सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है। अब स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी गहराई में उतरकर अपने मन के चेतन और अवचेतन तथा अचेतन स्तर पर पहुँचता है, वहाँ उठने वाले संकल्पों-विकल्पों की प्रेक्षा करता है, तटस्थ दर्शक के समान उन्हें देखता है; किन्तु उनसे अपने को जोड़ता नहीं, अलग ही रहता है।
संकल्प-विकल्प-प्रेक्षा से साधक की राग-द्वेष की वृत्ति कम हो जाती है; साथ ही उन संकल्प - विकल्पों का बल भी क्षीण हो जाता है, वे धीरे-धीरे समाप्तप्राय होने लगते हैं।
(4) कषाय- प्रेक्षा कषायों का मूल स्थान तो कार्मण शरीर है; किन्तु उनके आवेगों-संवेगों
* प्रेक्षाध्यान- योग साधना 207