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इसके विपरीत सिंह स्वाभिमानी होता है, वह निर्बल को सताता नहीं और शक्तिशाली के सामने दबता नहीं वरन् उससे संघर्ष करता है। साथ ही वह बन्दूक पर नहीं अपितु बन्दूक चलाने वाले पर झपटता है, उसकी दृष्टि निमित्त से आगे बढ़कर उपादान तक पहुँचती है।
ग्रन्थि-मुक्त मनुष्य सिंहवृत्ति वाले होते हैं, उनमें आत्मविश्वास होता है, वे अपने विवेक से कारणों की तह तक पहुँच जाते हैं।
ग्रन्थिभेद का अभिप्राय है श्वानवृत्ति का पलायन और सिंहवृत्ति का आविर्भाव।
आध्यात्मिक शब्दों में ग्रन्थिभेद की साधना स्वयं का स्वयं से संघर्ष है। साधक अपनी ही हीनवृत्तियों से, दुर्वृत्तियों से, ग्रन्थियों से स्वयं ही अपने अन्तर में संघर्ष करता है। यह सम्पूर्ण संघर्ष आन्तरिक है, बाहर इस संघर्ष का कोई भी चिन्ह नहीं दिखाई देता, सिर्फ परिणाम ही झलकता है। __आन्तरिक होने के कारण यह संघर्ष बहुत ही श्रमसाध्य है। - कर्मयोगी श्रीकृष्ण के जीवन का एक प्रसंग है। एक बार उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि के सभी श्रमणों की सविधि वन्दना की। वन्दना करते-करते वे अत्यधिक थक गये। सभी श्रमणों की सविधि वन्दना समाप्त करने के बाद उन्होंने भगवान अरिष्टनेमि से पूछा
"भन्ते! मैंने जीवन में बहुत-से युद्ध किये हैं, लाखों योद्धाओं से अकेला ही जूझा हूँ। फिर भी मुझे कभी इतनी थकान नहीं आई, जितनी आज श्रमणों की वन्दना से आ गई है। इसका क्या कारण है?"
भगवान अरिष्टनेमि ने कहा
"कृष्ण! वह बाह्य युद्ध थे। उनमें तुमने बाहरी शत्रुओं से संघर्ष किया था। किन्तु श्रमण-वन्दना करते समय तुम आन्तरिक शत्रुओं से जूझ रहे थे, कर्मों की ग्रन्थियों को तोड़ रहे थे। आन्तरिक संघर्ष अधिक कठिन होता है, इसीलिए तुम्हें थकान का अनुभव हो रहा है।"
सार यह है कि आन्तरिक संघर्ष में अधिक आत्मिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है; और ग्रन्थिभेद साधना में आन्तरिक संघर्ष ही साधक को करना होता है। .
ग्रन्थियों के भेद और प्रकार कितने भी हों, उनके कितने भी नाम दिये
* ग्रन्थिभेद-योग साधना * 185 *