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________________ रोग, (17) तृण-स्पर्श, (18) जल्ल (पसीना), (19) सत्कार-पुरस्कार, (20) प्रज्ञा, (21) अज्ञान, (22) अदर्शन।' (27) मारणान्तिक समाध्यासन-मारणान्तिक वेदना, कष्ट एवं उपसर्ग-परीषह को भी समभाव से सहन करना, मारणान्तिक समाध्यासना कहलाता है। श्रमणयोगी मृत्युतुल्य कष्ट को भी पूर्ण शान्ति और आत्मभाव में रमण करते हुए सहता है। ये श्रमण के 27 गुण हैं जिनका पालन श्रमण के लिए अनिवार्य है। श्रमण-गुण बनाम योग-मार्ग __ यदि गहराई से विचार किया जाये तो सम्पूर्ण श्रमणाचार योग-मार्ग ही है। अहिंसा महाव्रत द्वारा वह समत्वयोग की साधना करता है। सत्य तो योग का आधार है ही। ब्रह्मचर्य द्वारा वह अपनी चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है तथा अपरिग्रह महाव्रत की साधना तो निस्पृह योग की साधना ही है। इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों का निग्रह-इन्द्रियों का प्रत्याहार है तथा कषायों के आवेग को रोकना शान्ति योग है-जो अध्यात्मयोग का एक आवश्यक पहलू है। योगसत्य द्वारा श्रमण अपने मन-वचन-काय तीनों योगों को वश में करता है। वेदना समाध्यासना द्वारा वह तितिक्षा भाव की वृद्धि 'करके 'लययोग' की उच्चतम सीमा तक पहुँचता है तो चारित्र सम्पन्नता द्वारा अर्हन्त अथवा जीवन-मुक्त की स्थिति प्राप्त करता है। इस प्रकार श्रमणयोगी अपने श्रमणाचार (महाव्रत यानी मूलव्रत और उत्तरव्रतों की साधना) द्वारा सम्पूर्णयोग की साधना करता है। 1. उत्तराध्ययन सूत्र-परीषह विभक्ति, दूसरा अध्ययन। * 140 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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