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विश्वास है। यह विश्वास, श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन योग के साधक के लिए सर्वोत्तम साधन है।
सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) समस्त गुणों का बीज है। इस श्रद्धा का आश्रय लेने वाले साधक को चित्तप्रसाद, वीर्य, उत्साह, स्मृति, एकाग्रता, समाधि और प्रज्ञाप्रकर्ष आदि साधन अपने आप ही प्राप्त होते चले जाते हैं।
इसका महत्त्व बताते हुए जैनागम आचारांग सूत्र में तो यहाँ तक कहा है
गया
सम्यग्दर्शी साधक पापों का बंध नहीं करता । '
योगसूत्र के व्यास भाष्य में इसे माता के समान रक्षिका बताते हुए कहा
माता के समान कल्याण करने वाली यह श्रद्धा साधक की रक्षा पुत्र के समान करती है', अर्थात् जिस तरह माता अपने पुत्र की रक्षा करती है, उसी तरह श्रद्धा भी साधक की रक्षा करती है।
यह श्रद्धा अन्तःकरण में विवेकपूर्वक वस्तु तत्त्व, ज्ञेय पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करने की तीव्र रुचि - तीव्र अभिलाषा रूप होती है।
सम्यग्दर्शन किसी आत्मा को स्वतः (जन्मान्तरीय उत्तम संस्कारों के प्रभाव से अपने आप ही ) हो जाता है और किसी को परत: ( सत्शास्त्रों के स्वाध्याय तथा सद्गुरुओं की सत्संगति से ) प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन का अंकुरण होते ही व्यक्ति में आन्तरिक और बाह्य विशिष्ट लक्षणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। अन्तरंग में उसकी रुचि तथा झुकाव आत्मा की ओर हो जाता है, परिणामस्वरूप उसे भौतिक सुख-साधन फीके व तुच्छ लगने लगते हैं; तथा बाह्य रूप में उसमें पाँच लक्षण प्रगट हो जाते हैं - (1) सम, (2) संवेग, (3) निर्वेद, (4) अनुकम्पा और (5) आस्तिक्य'
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(1) सम ( शम) - उदय में आये क्रोध, मान, माया, कषायभावों की उपशांत / शमन करना शम है।
(2) संवेग - मोक्षविषयक तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है।
समत्तदंसी ण करेइ पावं । - आचारंग 1/3/2
सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति ।
लोभ रूप
लक्षणाः ।
कृपा-प्रशम-संवेगनिर्वेदास्तिक्य गुणा भवन्तु यच्चित्ते स स्यात् सम्यक्त्वभूषितः । ।
- योगसूत्र, व्यास भाष्य 1 / 20
- गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक 21
* योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील (1) 105