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योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील (1) 1 ( गृहस्थयोगी के साधना - सोपान )
श्रद्धा का महत्त्व
भव्यभवन के लिए जितना महत्त्व नींव का होता है, उतना ही महत्त्व कार्य में सफलता प्राप्ति के लिए श्रद्धा ( अपने लक्ष्य के लिए आदरयुक्त आत्मविश्वास) का होता है। यदि किसी भव्य और उत्तुंग भवन में उच्चकोटि की कलाकारी की गई हो, उसका कंगूरा स्वर्णनिर्मित हो, उसमें रत्न जड़े हों किन्तु उसकी नींव कमजोर हो, खोखली हो तो वह आकर्षक तो बहुत होगा किन्तु स्थायी न रह सकेगा। इसी प्रकार श्रद्धाविहीन आचार जन-जन को आकर्षित तो कर सकता है किन्तु होगा अन्दर से खोखला । वह स्थिर नहीं रह सकेगा, साधक को अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकेगा, ध्येय पर पहुँचने से पहले ही साधक भटक जायेगा, पतित हो जायेगा ।
व्यावहारिक जीवन में जो स्थिति आत्मविश्वास की है, आध्यात्मिक जीवन में वही श्रद्धा की है। श्रद्धा का अभिप्राय अपने ध्येय के प्रति अविचल निष्ठा है। श्रद्धा को ही जैनदर्शन में सम्यक्दर्शन कहा गया है
'सम्यग्दर्शन' शब्द का अर्थ
‘दर्शन' शब्द जैन आगमों में दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसका एक अर्थ है–‘देखना' अर्थात् अनाकार ज्ञान'; और दूसरा अर्थ है - श्रद्धा' |
1.
2.
साकारं ज्ञानं अनाकारं दर्शनं ।
उत्तराध्ययन सूत्र 28 / 15; (ख) तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति ) 1 / 2;
(ग) स्थानांग वृत्ति (अभयदेव सूरि) स्थान 1;
(घ) नियमसार - तात्पर्यवृत्ति 31
- तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृष्ठ 86
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