________________
जपात्सिद्धिः जपात्सिद्धिः जपात्सिद्धिः न संशयः ।
इसीलिये गीताकार ने गीता ( 10/25 ) में जप (यज्ञ) को अपनी विभूति बताया है।
वैदिक युग में ऋषिगण वेदमन्त्रों का बार-बार - अनेक बार उच्चारण करते रहते थे, उनकी इस क्रिया को जप की संज्ञा दी जा सकती है। वेदोक्त गायत्री मन्त्र का प्रातः, संध्या और मध्यान्ह के समय जप किया ही जाता था। अतः कहा जा सकता है कि वैदिक युग में भी जप प्रचलित था।
उपनिषद, स्मृति और पुराण युग में जप अथवा जपयोग के अनेक प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के मन्त्रों का जप किया जाता था । जप का महत्व प्रदर्शित करते हुए मनुस्मृति में कहा गया हैविधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः । उपांशु स्यायच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृताः । ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञसमन्विताः । सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्
- मनुस्मृति 2/85-86 अर्थात्-दशपौर्णमासरूप कर्मयज्ञों की अपेक्षा जप यज्ञ दस गुना श्रेष्ठ है; उपांशुजप सौ गुना और मानसजप सहस्रगुना श्रेष्ठ है। कर्मयज्ञ (दश - पौर्णमास) ये जो चार पाकयज्ञ हैं - वैश्वदेव, बलिकर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि सत्कार- ये जपयज्ञ की सोलहवीं कला (अंश) के बराबर भी नहीं हैं।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि नामस्मरण और जप योग में बहुत बड़ा अन्तर है। नामस्मरण में तो केवल अपने इष्टदेव के नाम का रटनमात्र ही होता है किन्तु जपयोग में किसी मन्त्र का विधिपूर्वक तल्लीनता के साथ जप किया जाता है। जपयोग में आसनशुद्धि, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, स्थानशुद्धि आदि कई प्रकार की शुद्धियाँ करने के बाद स्थिर आसन और स्थिर मन से जप किया जाता है।
जप के कई प्रकार हैं।
(1) नित्यजप - यह जप का वह प्रकार है जो प्रतिदिन किया जाता है। प्रातः अथवा सन्ध्या या मध्यान्ह अथवा तीनों समय किसी इष्ट मन्त्र का जप, बिना किसी प्रकार की इच्छा या कामना के किया जाता है। जप-योगी की यह दैनिक चर्या का एक अंग ही होता है।
*42 अध्यात्म योग साधना