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दते हैं और उससे देवी प्रकट हो जाती है । देवी भागवत में भी यह प्रसंग मिलता है परन्तु वहाँ पर देवता लोग उस तेज को देखकर घबरा जाते हैं और देवी तब सौम्य रूप धारण करती है । इस देवी का नाम भुवनेश्वरी है । बारहवें स्कन्ध में पूनः उमा हैमवती की उत्पत्ति देवताओं के तेज से दर्शायी गयी है' (XII/8/ 51-57) । यह अनेकता को एकात्म में परिवर्तित करने का प्रयास प्रतीत होता है।
दवीपुराण में प्राप्त देवी के विभिन्न विशेषणों में 'नादबिन्दु रुपिणी मन्त्रमयी, सर्वगा आदि प्रमुख हैं और परा अपरा भी उसी के नाम हैं । वह शिव और शक्तिस्वरूपा होते हुये भी एक ही है ।
एका गुणात्मा त्रैलोक्ये तस्मादेका सा उच्यते।
देवी सा परमार्थेति वदन्ते भिन्नदर्शिन :- ।। अर्थात् वह तो वस्तुतः एक ही है । समस्त विश्व और सकल मानसिक भाव उसी से उद्भूत होते हैं । तथापि अपनी सामर्थ्य एवं बुद्धि के अनुसार सांसारिक लोग उसको अनेक रूपों में पूजते हैं । कुछ लोग रुद्र की, दुसरे विष्णु को एवं ब्रह्मा की पूजा करते हैं—पर वस्तुतः वह महाशक्ति ही है । अर्थात् जिस प्रकार स्फटिक मरिण में विभिन्न रंगों का आभास होने पर लोग स्फटिक को ही विभिन्न रंगोंवाली मान लेते हैं उसी प्रकार देवी एक होते हुये भी अनेक रूप में आभासित होती है।
देव्या व्याप्तमिद सर्व जगत् स्थावर जंगमम् ।'
इज्यते पूज्यते देवी अन्नपानात्मिका सदा ॥ संसार उसी की रचना है एवं उसी का स्वरूप है । संसार में प्राणी उसी भक्त वत्सला की सन्तान हैं।
सर्वा सर्वगता देवी सर्वदेव नमस्कृता।'
यष्टव्या शुद्ध भावेन न भिन्ना पृथगेव सा ।। उसकी अचना, वन्दना, पूजा अनेक नामों व रूपों में की जाती है। देवीपुराण नारायणी, तारा श्वेता, शिवा, गौरी, चचिका, विमला, उमा, अम्बिका, चामुण्डा एवं नन्दा आदि नामों से उसी महाशक्ति का स्तवन करता है। मानसिक भावों का निर्मल होना अतीव आवश्यक बतलाया गया है। कनकेश्वरी:--
- देवीपुराण में महादेवी कनकेश्वरी के नगर का बहुत ही सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। देवी का भवन भी अत्यधिक सुरम्य एवं मनोहर बतलाया गया है। विमान भी उसका अपूर्व है । (६५/२६-३०) देवी की प्रतिमा चन्द्रकान्तमणी की बनायी जाती है और स्त्रियां अपने अपने घरों में बड़े ही प्रेम एवं विधिविधान के साथ उनकी पूजा करती हैं। पूजा के उद्देश्यों में सुन्दर एवं मनोहारी पति की कामना भी सम्मिलित होती है। (६५/३८) देवी की पूजा किसी भी प्रकार की प्रतिमा से की जा सकती है (अर्चयन्ति सदा कालम् ) एवं सदा हीं की जाती है।
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१. देवी भागवत vii/३१/२५-५४ २. वही x ii/८/५१.५७ ३. देवी पु० ३७/७८-७६ ४. वही ३७/८२.८७ ५. वही ३७/८८-६१
६. देवी पुराण ६८/३-६ । ७. वही १८/७-१५ । ८. वही ६५/२६-३० । है. वही ६५/३८ । १०. वही १५/४१-४२ ।