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________________ होता है, उस रूप में देवी को प्रार्येतर या अवैदिक भी कहा जाता है। वर्तमान अनुसन्धान जो किये जा रहे हैं उनसे भी यही ज्ञात होता है कि मातृ-पूजा का क्रम आदिम जातियों में भी अवश्य था। यह मातृपूजा केवल भारत में ही प्रचलित नहीं थी, अपितु उन सभी प्रदेशों में इसके प्रमाण उपलब्ध होते हैं जहां-जहां पर प्राचीन कालीन संस्कृति के अवशेष मिलते हैं । यूनान में सबसे प्राचीन देवता पर्वत देवी हैं । ४०० ई०पू० के अवशेषों पर देवी सिंहासन पर बैठी हुई चित्रित की गई हैं और साथ ही दोनों तरफ सिंह भी दर्शाये गये हैं। यूरोपीय विद्वान सर जोन मार्शल के अनुसार सिन्धु सभ्यता में पायी जाने वाली देवी की मूर्तियों के समान ही विभिन्न देशों में भी देवी मूर्तियां पाई जाती हैं। इन देशों के नाम इस प्रकार हैं मेसोपोटामिया, एशिया माइनर, सीरिया एवं बल्खान आदि । महाभारत' हरिवंश' एवं महा पुराण सभी यह बतलाते हैं कि प्राचीन काल में भारत के विभिन्न भागों में अनेक स्त्री देवताओं की पूजा होती थी। आर्यों के साथ-साथ बर्बर और पुलिन्द आदि आदिमजातियाँ भी देवी की पूजा करती थीं। ये सभी स्त्री देवता प्रायः दिव्य माताओं के रूप में प्रकट होती हैं। वे पुरुष देवताओं की पत्नियों के रूप में भी पूजी जाती रही हैं किन्तु कन्या रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही हैं । ये देवियाँ प्रायः पर्वतशिखरों को अपनी क्रीडास्थली बनाती रहीं और सभी मातृकानों की उत्पत्ति हेतु हैं । दुर्गी या दुर्गा रूप में पर्वत देवी का वर्णन तैत्तिरीय मारण्यक एवं महाभारत में मिलता है। इस देवी का सम्बन्ध अधिकतर हिमालय से रहा है। विन्ध्यवासिनी देवी भी सभी स्थानों पर कुमारी के रूप से पूजी जाती रही है। मार्कण्डेय एवं देवी पुराण आदि में देवी उमारूप में या विन्ध्यवासिनी रूप में कन्या है एवं असुरों का संहार करती है। ऐसा माना जाता है कि आदिम जातिया मातृप्रधान होती थी और इसी कारणसे मातृपूजा उन जातियों में प्रचलित होती चली गयी। ये जातियां अधिकतर पर्वतों; अरण्यों एवं निर्जन प्रदेशों में निवास करती थीं और अपनी मातृ देवता की पूजा वहीं पर करती थीं। जातिगत प्राचार के आधार पर ये लोग पूजा में मदिरा, मांस एवं अन्य निषिद्ध पदार्थों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार के भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि पशुबलि, मानवबलि, और भैरवी चक्र आदि का भी विधान था। इस प्रकार से देवीपूजा को इन जातियों ने सामाजिक उत्सव के रूप में प्रचलित किया एवं अपनी सामाजिक स्वतन्त्रता को(Permissive Society) जीवित रखा। साथ ही साथ इन जनजातियों के अतिरिक्त भी सभी मानव कठिनाई के समय ही इष्टदेव का स्मरण करते हैं। जैसे ही मानव निर्जनप्रान्तो में प्रकृति की 8. Sir John Marshall Mahenjodaro and the Indus Civilization, V-II-P. 50. २. महाभारत विराट पर्व-अध्याय-६ . भीष्म पर्व-अध्याय-२३. ३. हरिवंश पु० II विष्णु पर्व अध्याय-२-४ एवं २२ । ४. विष्णु पु. v/1; मार्कण्डेय पु० अध्याय ८१-६३; भविष्य पुo iv/138. वराह पु० अध्याय-२१-२८; ६०-६६ । ५. Hazra-up-purana Studies II. P.17.
SR No.002465
Book TitleDevi Puranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpendra Sharma
PublisherLalbahadur Shastri Kendriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year1976
Total Pages588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L015
File Size11 MB
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