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________________ संस्कृत में द्रुतविलम्बित और हिन्दी में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग हुआ है। भावनाशतक - भावनाशतक का अपर नाम कांप्ठक में दिया है- तीर्थंकर ऐसे बनें। भावनाशतक में तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध करने में कारणभूत दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का नवीन शैली में वर्णन है, नवीन शैली से लिखने का तात्पर्य यह है कि इसमें दर्शनविशुद्धि की निर्मलदृष्टि, विनयसंपन्नता को विनयावनति शीलव्रतंप्वनतिचार को सुशीलता, अभीक्ष्णज्ञानांपयांग को निरन्तरज्ञानोपयोग, संवंग को संवंग, शक्तितस्त्याग को त्यागवृत्ति, शक्तितस्तप को सत्तपः, . साधुसमाधि को साधुसमाधिसुधासाधन, आदि नामों से व्यवहृत किया है। शतक में एक एक भावना के बाद एक मुरजबन्ध लिखा है। मुरजबन्ध में अनुष्टुप् और शेष पद्यों में आर्या छन्द का प्रयोग किया गया. है 1 मुरजबन्ध कई प्रकार का होता है। इस शतक में सामान्य मुरजबन्ध की रचना की गई है. उसके लिखने की विधि अलंकार- चिन्तामणि में इस प्रकार दी है- पूर्वार्धमूर्ध्वपंक्तौ तु लिखित्वार्द्धं परं ततः । एकान्तरितमूर्ध्वाधां मुरजं निगदेत् कविः ।। अर्थात् सर्वप्रथम श्लोक के पूर्वार्ध को पंक्ति के आकार में लिखकर उत्तरार्ध को भी पंक्ति के आकार में उसके नीचे लिखें। इस अलंकार में प्रथम पंक्ति के प्रथम अक्षर को द्वितीय पंक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ और द्वितीय पंक्ति के प्रथम अक्षर को प्रथम पक्ति के द्वितीय अक्षर के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये। यही क्रम श्लोक के अन्तिम अक्षर तक जारी रहता है। यह सामान्य मुरजबन्ध का लक्षण है। इसका प्रयोग इस शतक के 10, 16, 22, 28, 34, 40, 46, 52, 58, 64, 70, 82, 88, 94 और 100 वें श्लोकों में किया गया / वैयावृत्य भावना का एक श्लोक देखिये- समौक्तिकोऽत्र कलिंगः कलितः कमनीयमणिना कलिंगः । दुर्लभा भुवि कलिंगस्तथा युतोऽनेन सकलिंगः ।। जिस प्रकार इस भूमि में मोतियों से सहित हाथी दुर्लभ है, तथा मणि से युक्त नाग दुर्लभ है उसी प्रकार वैयावृत्य से युक्त मुमि, इन तीनों अर्थों को एक ही श्लोक में गुम्फित करना चमत्कार की वस्तु है। पद्यानुवाद भी देखिये- व साधु सेवक कहां मिलते कहाँ हैं ? जा जातरूप धरते जग में अहा हैं । प्रत्येक नाग मणि से कब शांभता है, प्रत्येक नाग कब मौक्तिक धारता // इसकी प्रस्तावना में बन्धस्वामित्वविचय (धवला की अष्टम पुस्तक) के आधार पर प्रचलित सोलहकारणभावनाओं का मूलस्रोत बताया गया है। इस शतक की मेरे द्वारा लिखित संस्कृत टीका भी मुद्रित की गयी है। परिषहजयशतक - इसका अपर नाम ज्ञानोदय है। इस शतक में संवर के "स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रक्षापरिषहजयचारित्रैः " इस सूत्र में प्रतिपादित संवर के कारणों में से परिषहजय का वर्णन है। "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषांढव्याः परिषहाः " तत्त्वार्थसूत्रकार ने
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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