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________________ 1. श्रमणशतक - इसकी रचना विक्रम संवत् 2031 में अजमेर के वर्षायोग में हुई तथा इसका प्रकाशन दर्शनाचार्य गुलाबचन्द्र जी जबलपुर की ओर से हुआ। 2. निरंजनशतक - वीरनिर्वाण संवत् 2503 में कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र पर रचा गया तथा इसका प्रकाशन क्षेत्र कमेटी की ओर से हुआ। ___3. भावनाशतक - विक्रम संवत् 2023 में फीरोजाबाद में रचा गया और इसका प्रकाशन निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन समिति कलकत्ता की ओर से हुआ। 4. परिषहजयशतक (ज्ञानोदय) - वीरनिर्वाण संवत् 2503 में कुण्डलगिरि (कोनी जी) क्षेत्र पर रचा गया तथा इसका प्रकाशन दर्शनाचार्य गुलाबचन्द्र जी जबलपुर की ओर से हुआ। 5. सुनीतिशतक - वीरनिर्वाण संवत् 2510 में ईसरी (गिरिडीह )में रचा गया और इसका प्रकाशन श्री रतनलाल हिम्मतसिंह जैन कलकत्ता की ओर से हुआ। एक सुनीतिशतक को छोड़कर शेष चार शतकों की भाषा अत्यन्त दुरुह होने का कारण है कि उनमें अधिकांश अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग हुआ है। यमक,अनुप्रास तथा चित्र आदि शब्दालंकारों की प्रमुखता है। अर्थालंकारों की रचना करने की अपेक्षा शब्दालंकारों की रचना करना अत्यन्त कठिन है। परन्त इस लिन में आचार्य विद्यासागर जी का वैदष्य प्रशंसनीय है। रचनाओं को दुरुह देख आपन निरंजनातक भावनाशतक और श्रमणशतक में मूलश्लोकों के नीचे अन्वय भी दिया है। परन्तु अप्रसिद्ध शब्दा का जब तक कोष तथा समासविग्रह नहीं दिया जाता है तब तक अर्थबोध नहीं होता और अर्थबोध के बिना ग्रन्थकर्ता का अभिप्राय पाठक नहीं समझ पाता। संपादन के लिए जब मेरे पास भावनाशतक की पाण्डुलिपि आई तब मैंने आचार्यश्री से प्रार्थना की थी कि जब तक इसकी संस्कृत टीका नहीं होती है तब तक मात्र अन्वय और पद्यानुवाद से मूल का भाव प्रस्फुटित नहीं होता। अतः इसकी संस्कृत टीका होना आवश्यक है। धृष्टतावश मैंने यह भी लिख दिया कि यदि आपको अवकाश न हो तो मुझे आज्ञा दीजिये, मैं लिख दूँ। महाराज ने प्रार्थना स्वीकार कर मुझे संस्कृत टीका लिखने की स्वीकृति दे दी। मैंने संस्कृत टीका लिखकर आचार्यश्री को समर्पित कर दी। उसे देखकर प्रकाशित करने की स्वीकृति हो गर्यः । संस्कृत टीका से पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई। गतवर्ष संघस्थ एक साधु ने भावनाशतक के समान शेष शतकों की भी संस्कृत टीका लिखी जाने की स्वीकृति प्राप्त कर ली। साथ ही मुझे आदेश दिया कि आप शेष चार शतकों पर भी संस्कृत टीका लिख दीजिये एवं श्लोकों का मूलानुगामी गद्यानुवाद भी कर दें। आज्ञा को शिरोधार्य कर मैंने संस्कृत टीका और मूलानुगामी गद्यानुवाद कर संघ में भेज दिया। आचार्यश्री ने अधिकांश विश्वलोचन कोष का उपयोग किया है अतः टीका लिखते समय उसे तथा अन्य कोषों को भी सामने रखा गया है। मात्र हिन्दी पद्यों का पाठ करने वाले पाठकों की अभिरुचि का ध्यान रखते हुए पाँचों शतकों का पद्यानुवाद अन्त में एक साथ दिया है। आदि में संस्कृत श्लोक, अन्वय, संस्कृत टीका और मूलानुगामी गद्यानुवाद दिया है। आगे इन शतकों में निरुपित प्रमेय का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक जान पड़ता है - श्रमणशतक - कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार के चारित्राधिकार में श्रमण की परिभाषा देते हुए लिखा है
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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