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प्रकाशकीय
जैन सन्तों की दिनचर्या में चिन्तन / मनमें/ लेखन का एक विशेष स्थान रहा है, है तथा रहेगा। उनकी इस प्रवृत्ति ने ही जैन साहित्य की सतत सुरक्षित एवं संवर्धित किया। ये साधु अपने समय का सच्चे अर्थों में सदुपयोग करने में तत्पर रहते रहे हैं। 'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां' वाली कहावत में भी यथेष्ट परिवर्धन कर वे काव्यशास्त्र के द्वारा मात्र विनोद का लक्ष्य न रख अध्यात्म की अगम गहराईयों की तहों में प्रवेश पाने की सुगमतर राहों को आविष्कारित करना ही लक्ष्य बनाते रहे। उनकी ज्ञानाराधना मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा या प्रतिस्पर्धा आदि कामनाओं से स्खलित हो नदप्रवाह की तरह सहजगतिशील एवं निर्मज रही। शायद यही कारण है कि उनकी लेखनी को मार्मिकतथ्यों एवं लोकरूढियों के गर्भभेदन में कोई रुकावट या श्रम नहीं हुआ। उनकी चिन्तना ने विना किसी अपेक्षा के हितग्राही सत्य को प्रकट व प्रसारित किया। जो कि जैन वाड् मय की अमोल धरोहर है।
वर्तमान में दिगम्बर जैन समुदाय में भास्वर नक्षत्र की तरह स्पष्ट एवं आकर्षक सत्ता को स्थापित करने वाले जैनावधूत परम पूज्य आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज का नाम देदीप्यमान है। आपने आचार के क्षेत्र में आदर्श स्थापित किये हैं। उनको देखते हुए चतुर्थकालीन जैन सन्तों का स्मरण सहज ही हो जाता है तथा आज की इस चकाचौंध भरी दुनिया के समक्ष वे आश्चर्यजनक अवभासित होते हैं। तिस पर भी आपका यह दावा कतई नहीं होता कि यह संहिता का पूर्णतया अनुपालन है।
'आचार्य विद्यासागर जी ने अपनी सशक्त कलम से अपने अनुभवों एवं लोकनीतियों को लिपिबद्ध किया । आप संस्कृत और हिन्दी पर साधिकार एवं समान रूप से लगातार 15-20 वर्षों से लिख रहे हैं। इस दौरान पांच संस्कृत शतकों की रचना हुई। जो कि पाठकों के कण्ठहार बन गये। कई संस्करण निकले। परन्तु आज संस्कृत के प्रति बढ़ती उपेक्षा के कारण आवश्यक लगा कि इन पर टीका के साथ हिन्दी रूपान्तरण भी होना चाहिए। आचार्य श्री से कई बार विनयपूर्वक निवेदन किया गया पर यह संभव न हो सका। अतः यह कार्य पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य को सौंपा गया। जो अब तैयार होकर आप सबके हाथों में है। इन शतकों पर अनुसन्धान की दिशा में भी कार्य हो चुका और हो रहा है। एक शोध प्रबन्ध डा. आशालता मलैया, सागर ने "संस्कृत शतक परम्परा और आचार्य विद्यासागर के शतक" के नाम से प्रस्तुत किया। जो कि विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत हो प्रकाशित भी हो चुका है। एक प्रबन्ध दमोह से भी प्रस्तुत किया जा रहा है।
परम पूज्य आचार्य श्री के चरणों में विनम्र नमन-वन्दन अर्पित कर उनके प्रति श्रद्धा * के सुमनों के द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं तथा उनके उपकार को बहुशः स्मृत करते हैं। वृद्धावस्था में भी पं. पन्नालाल जी ने यह कार्य संपन्न कर दिया, लगता है यह सब जिनशासन का ही प्रभाव है अन्यथा उनके कांपते हाथ, हिलती गर्दन और स्थिर न हो सकने वाली आसन के साथ भी वे कैसे कार्य कर सकते ? उनका आभार मानना शब्दों की सामर्थ्य के बाहर है। इसके साथ ही इस कार्य में हमें बहुत से लोगों से सहयोग लेना पड़ा। इस में जिन भी महानुभावों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप भी सहयोग दिया है उनके प्रति हम कृतज्ञ हैं ।
जिनशासन की प्रभावना के साथ उसके अनुपालन की ओर हमारे कदम बढ़ सके, इसी भावना से साथ.....
ज्ञानगंगा