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________________ एक रहा शृङ्गार रसों में रस में डूबे रहते हैं। . .. तत्त्वज्ञान से विमुख रहे जो इस विध कुछ कवि कहते हैं।। किन्तु सुनो ! अध्यात्मशृंग तक पहुंचाता रस सार रहा। परम-शान्त रस कवियों का वह सुखकर है शृङ्गार रहा।।२२।। नारायण प्रतिनारायण औ तीर्थकर बलदेव धनी। महा पुरुष दे महामना वे कहां गये जिनदेव गणी।। काल-गाल में कवल हुये सब विस्मृत मृत हैं आज़ नहीं। हम सम साधारण जन की क्या? कथा रही यह लाज रही।।२३।। गृही बना पर उद्यम बिन हो धन से वंचित यदि रहता। श्रमण बना श्रामण्य रहित हो धन में रंजित यदि रहता।। ईख-पुष्प आकाश-पुष्पसम इनका जीवन व्यर्थ. रहा। सही-सही पुरुषार्थ वन्य है जिस बिन सब दुखगर्त रहा।।२४।। तत्त्व-बोध को प्राप्त हुये पर धन से यश से यदि रीते। प्रायः मानव धनी जनों की हां में हां भर कर जीते।। श्वान चाहता सुखमय जीवन जग में सात्त्विक नामी हो। पीछे-पीछे पूंछ हिलाता स्वामी के अनुगामी हो।।२५।। मोक्षमार्ग में विचरण करता श्रमण बना है नगन रहा। किन्तु परिग्रह यदि रखता है अणुभर भी सो विघन रहा।। पवन वेग से मयूर का वह पुच्छ-भार जब ताड़ित हो। मयूर समुचित चल ना सकता विचलित पद हो बाधित हो।।२६।। बात सङ्ग की कहें कहां तक सुनो : सङ्ग तो सङ्ग रहा। संघ-भार भी अन्त समय में सङ्ग रहा सुन दंग रहा।। वस्त्राभरणाभूषण सारे बोझिल हो मणिहार तथा। वृद्धावस्था में तो कोमल-मलमल भी अतिभार व्यथा।।२७।। सुख चाहें उन शिष्यों के प्रति कठोरतर व्यवहार करें। कभी-कभी गुरु रुष्ट हुये से वचनों का व्यापार करें।। किन्तु हृदय से सदा सदय हो मार्दवतम हो लघुतम हो। जैसा श्रीफल कठोर बाहर भीतर उज्ज्वल मृदुतम हो।।२८।।
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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