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काल रूप ले लोभ अनल वह जीवन में जब खिलता है । सुधी जन का व्रती जनों का अपनापन ही जलता है ।। भीतर में नहिं भले बाह्य में भेष- गात्र वह भार रहो । निगला ग़ज ने 'केंथ' निकलता शेष मात्र बस बाहर ओ ।। ८ ।
भव भव में नव तन का कारण यही परिग्रह माना है । वैर- कलह का जनक रहा है यही परिग्रह बाना है ।। यही परिग्रह राजमार्ग है जिस पर शनि का विचरण हो । । अतः परिग्रह तजता यह मुनि जिससे इसका सुमरण हो ।। ९ ।।
साक्षर होकर जीवन जिसका मोहादिक से शोभित है। ज्ञान, ज्ञानपन से वंचित है संयम से नहिं शोधित है।। शूकर के केशों को देखो कहां ललित हैं. जटिल कहां ? स्पर्शनीय या दर्शनीय या कोमल-कोमल कुटिल कहां ? ।। १० ।।
पाप पंक में पतित हुआ हो साधु समागम यदि पाता । प्रथम पुण्य से भव वैभव पा मुक्ति समागम पुनि पाता । । मिश्री का यदि सुयोग पाती खट्टी हो वह यदपि दही । इष्ट मिष्ट श्रीखण्ड बनेगी, मूढ़ चाहता तदपि नहीं । । ११ ।।
जग के जड़ जङ्गम जीवों का काय व्याधि का मन्दिर है । दुस्सह दुख का मूल हेतु है चित्त आधि का मन्दिर है । । साधु जनों का किन्तु काय वह अचलराज है, मन्दर है । निज-पर सुख का कारण मन है जीवित शिव का मन्दिर है । । १२ । ।
केवलज्ञानावरणादिक जड़ कर्मों का जब उदय रहा।
पूर्ण ज्ञान का उदय नहीं हो अनन्त सुख का निलय रहा । । विशाल नभ मण्डल में जैसा उदित प्रभाकर लोहित हो । तारक दल वह लुप्त - गुप्त हो शशि भी शीघ्र तिरोहित हो । । १३ ।।
गृहस्थ जब तक गृह में रहता विरागता का श्वास नहीं । जैसा जीवन अनुभव वैसा सरागता का वास वहीं । । सूखी लकड़ी जलती जिससे धूम्र नहीं वह उठता है । गीली लकड़ी मन्द जलेगी धूम्र उठे, दम घुटता है ।। १४ ।
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