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________________ वस्तु का पूर्ण स्वरूप कहने के लिये दोनों आवश्यक हैं जैसे नदी के दो तट परस्पर विरुद्ध रहते हुए भी नदी के लिये अनुकूल होते हैं ।।५६।। . [५७] दुःखस्य मूलं तनुधारणं वा, दुःखेषु दुःखं तु मनोगतं तत् । तत्रापि दुःखं च पराभवाद्धि, स्वस्यावबोधे न हि दुःखमस्ति ।। दुःखस्येति - दुःखस्य असातस्य मूलं प्रमुखकारणं तनुधारणं शरीरधारणमस्ति । दुःखेषु अशर्मसु दुःखं तु मनोगतं मानसिकं वर्तते। तत्रापि यत् पराभवाद् अनादराद् भवति तद् विशेषेण भवति। किन्तु स्वस्य स्वकीयशुद्धात्मनः अवबोधे ज्ञाने सति निश्चयेन दुःखं न ह्यस्ति ।। ५७।। अर्थ - दुःख का मूल कारण शरीर का धारण करना है। दुःखों में भी मानसिक दुःख सब से प्रबल है, उसमें भी पराभव से जो होता है वह अधिक प्रबल है। स्वकीय शुद्ध आत्मा के ज्ञान होने पर निश्चय से दुःख नहीं है ।।५७।। [५८] विमुक्तसङ्गा मनसा रमन्ते , तत्रैव चेद् ये न शिवीभवन्ति । मुञ्चन्ति ये यद्यपि कञ्चुकं वै , नो पन्नगा निर्गरलीभवन्ति ।। विमुक्तेति - विमुक्तसङ्गाः विमुक्तस्त्यक्तः सङ्गः परिग्रहो यैस्तथाभूताः सन्तोऽपि ये मनसा चेतसा तत्रैव सङ्ग एव रमन्ते रता भवन्ति चेत् ? ते न शिवीभवन्ति कल्याणभाजो न जायन्ते। तदेवोदाहरति-ये पन्नगाः सर्प यद्यपि कञ्चुकं निर्मोकं मुञ्चन्ति तथापि ते वै निश्चयेन नो निर्गरलीभवन्ति विषरहिता न भवन्ति ।। ५८।। ___ अर्थ - परिग्रह का त्याग करने वाले जो मनुष्य मन से उसी परिग्रह में रमण करते हैं लीन रहते हैं- वे कल्याण के भाजन नहीं होते। जैसे सांप कांचुली तो छोड़ देते हैं परन्तु विष से रहित नहीं होते ।।५८।। . (३१०)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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