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बोधयान पर बैठ, कर रहे यात्रा यतिवर यात्री हैं, त्याग चुके हैं, भूल चुके हैं रथवाहन, करपात्री हैं। पथ पर चलता तन को केवल देख रहे पथ दर्शाते, सदा रहें जयवन्त सन्त वे नमूं उन्हें मन हर्षाते।।४३ ।।
आत्मबोध पा पूज्य साधु ने चंचल मन को अचल किया, मोह लहर भी शान्त हुई है मानस सरवर अमल जिया। बहुविध दृढतम आसन से ही तन को संयत बना लिया, ' जीव दया का पालन फलतः किस विध होता जना दिया।।४४।।
संयम बाधक चरित मोह को पूर्ण मिटाने लक्ष बना, बिना आलसी बने निजी को पूज्य बनाने दक्ष बना। सरिता, सागर, सरवर तट पर दृढ़तम आसन लगा दिया, त्याग वासना, उपासनारत 'ऋषि की जय' तम भगा दिया।।४५।।
आसन परिषह का यह निश्चित अनुपम अद्भुत सुफल रहा, हुयें, हो रहे, होंगे जिनवर इस बिन,सब तप विफल रहा। बुधजन, मुनिजन से पूजित जिन ! अहोरात तव मत गाता, अतः आज भी भविकजनों ने धारा उसको नत माथा ।।४६ ।।
भय लगता है यदि तुझको अब विषयी जन में प्रमुख हुआ,' यह सुन ले तू चिर से शुचितम निज अनुभव से विमुख हुआ। दृढतम आसन लगा आप में होता अन्तर्धान वही, ऋषिवर भी आ उन चरणों में नमन करें गुणगान यही।। ४७।।
श्रुतावलोकन आलोड़न से मुनि का मन जब थक जाता, खरतर द्वादशविध तप तपते साथी तन भी रुक जाता। आगम के अनुसार निशा में शयन करे श्रम दूर करे, फलतः हे जिन ! तव सम अतिशय पावे सख भरपर खरे।।४८।।
भू पर अथवा कठिन शिला पर काष्ठ फलक पर या तृण पे, शयन रात में अधिक याम तक, दिन में न हिं, संयम तन पे। ब्रह्मचर्य व्रत सुदृढ बनाने यथाशक्ति यह व्रत धरना, जितनिद्रक हो हितचिन्तक हो अतिनिद्रा मुनि मत करना ।। ४ १ ।।
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