SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने ऊपर पूर्ण दया कर विषय-वासना त्याग दिया, नग्न परीषह सहते तजकर वस्त्र, निजी में राग किया। अनुपम, अव्यय वैभव पाते लौट नहीं भव में आते, वस्त्र वासना जो ना तजता भ्रमता भव भव में तातैं । । २९ ।। यहाँ अचेतन पुद्गल आदिक निज-निज गुण के केतन हैं, आदि मध्य और अन्त रहित हैं ज्ञान निलय हैं, चेतन हैं । यथार्थ में तो पदार्थ दल से भरा जगत् यह शाश्वत है, निरावरण हैं, निरा दिगम्बर स्वयं आप 'बस' भास्वत हैं । । ३० ।। बिना घृणा के नग्नरूप धर मुनिवर प्रमुदित रहते हैं, भवदुःखहारक, शिवसुखकारक, दुस्सह परिषह सहते हैं । लालन-पालन, लाड़-प्यार से सुत का करती ज्यों जननी, कुलदीपक यदि बुझता है तो रुदन मचाती है गुणिनी । । ३१ । । इन्द्रिय जिनसे चंचल होती सब विषयों से निरत हुए, इन्द्रियविजयी, विजितमना हैं निशिदिन निज में विरत हुए, अविरति रति से मौन हुये हैं अरति परीषह जीत रहे, जिनवर वाणी करुणा कर-कर कहती यों भवभीत रहे ।। ३२ ।। सड़ा-गला शव मरा पड़ा जो बिना गड़ा, अधगड़ा जला, भीड़ चील की चीर-चीरकर जिसे खा रही हिला-हिला । दृश्य भयावह लखते, सुनते गजारिगर्जन मरघट में, किन्तु ग्लानि, भय कभी न करते रहते मुनिवर निज घट में । । ३३ । । " विषय वासना जिनसे बढ़ती उन शास्त्रों से दूर रहें, विराग बढ़ता जिनसे उनको पढ़ें साम्य से पूर रहें। विगत काल में भोगे भोगों कभी न मन में लाते हैं, प्राप्तकाल सब सुधी बिताते निजी रमन में तातैं हैं । । ३४ ।। आगम के अनुकूल साधु हो अरति परीषह सहते हैं, कलुषित मन की भाव- प्रणाली मिटती गुरुवर कहते हैं । प्रतिफल मिलता दृढतम, शुचितम दिव्य-दृष्टि झट खुलती है, नियम रूप से शिव सुख मिलता ज्योत्स्ना जगमग जलती है ।। ३५ ।।
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy