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________________ दर्शकाः प्रवीणाः साधव इतीत्थं सन्तु भवन्तु जयन्तु च। 'दर्शकस्तु प्रतीहारे दर्शयितृप्रवीणयोः' इति विश्वलोचनः ।।४३।। __ अर्थ - जो सम्यग्ज्ञानरूपी सवारी पर अधिरूढ़ हैं, शरीर के सुखदायक वाहनों को भूल चुके हैं तथा मार्ग में चलते हुए अपने शरीर को जो दिखाते हैं अर्थात् देखने वाले लोगों से किसी प्रकार की सहायता की इच्छा नहीं करते, किन्तु यही चाहते हैं कि दर्शक लोग भी इसी तरह पद विहार करने वाले हों। इस प्रकार चर्यापरिषह को सहन करने वाले साधु जयवंत रहें।।४३।। [४४] विदचलीकृतचञ्चलमानसः, प्रगतमोहतरङ्गसुमानसः। बहुदृढासनसंयतकायक, स्तदनुपालितजीवनिकायकः।। विदिति -मुनयः कथंभूता भवन्तीत्याह-विदचलीकृतचञ्चलभानसः विदा ज्ञानेन अचलीकृतं स्थिरीकृतं चञ्चलमानसं च लघेतो येन तथाभूतः। प्रगतमोहतरङ्गसुभानतः प्रगतः प्रणष्टो मोहतरङ्गो यस्मात् तथाभूतं सुमानसं यस्य तथाभूतः मोहविकल्परहितहृदयः। बहुदृढासनसंयतकायक: बहुदृढेनातिस्थिरेणासनेन संयतः स्ववशीकृतः कायो देहो येन तथाभूतः स्थिरासन इत्यर्थः। तदनुपालितजीवनिकायकः तेन स्थिरासनेनानुपालितः सुरक्षितो जीवनिकायः प्राणिसमूहो येन तथाभूतः एवंभूता मुनयो निषद्यापरिषहजेतारो भवन्ति ।।४४।। अर्थ - निषद्यापरिषह सहन करने वाले मुनि कैसे होते हैं? –ज्ञान के द्वारा जिन्होंने चञ्चल मन को स्थिर कर लिया है जिनका हृदय मोहरूप तरङ्गों-मोहजनितविकल्पों से रहित है, अत्यन्त दृढ़ आसन से जिन्होंने शरीर को स्वाधीन कर लिया है और दृढ आसन होने से जिन्होंने जीव समूह की रक्षा की है, ऐसे मुनि निषद्यापरिषह को जीतने वाले होते हैं ।।४४।। चरणमोहकबन्धनहानये, रुचिमितश्च सदालसहा नये। नदतटे च नगे विहितासन, ऋषिगणो जयताच्च युतवासनः।। चरणेति - चरणमोहश्चारित्रमोह एव चरणमोहकः स एव बन्धनं तस्य हानये निराकरणाय नये व्यवहारचारित्रमार्गे रुचिमिच्छां श्रद्धां वा इतो गतः। सदालसहा सदा सर्वदा, आलसहा आलसं प्रमादं हन्तीति आलसहा। नदतटे सरित्तीरे नगे पर्वते च विहितासन: कृतनिषद्यः। च्युतवासन: च्युता वासना विषयसंस्कारो यस्य तथाभूतः (२३७)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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