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मिथ्यात्व से भ्रमित चित्त सही नहीं है,
तेरे उसे वचन ये रुचते नहीं हैं। मिश्री मिला पय उसे रुचता कहाँ है ?
जो दीन पीड़ित दुखी ज्वर से अहा ! है ।।७१।।
लालित्य पूर्ण कविता लिख के तुम्हारी,
होते अनेक कवि हैं कवि नामधारी। मैं भी सुकाव्य लिख के कवि तो हुआ हूँ,
आश्चर्य तो यह निजानुभवी हुआ हूँ ।।७२।।
श्रद्धासमेत तुमको यदि जानता है,
शुद्धात्म को वह अवश्य पिछानता है । धूवाँ दिखा अनल का अनुमान होता,
है तर्क शास्त्र पढ़ते दृद बोध होता ।। ७३ ।।
मोहादि कर्म मल को तुमने मिटाया,
स्वामी स्वकीय पद शाश्वत सौख्य पाया । लेता सहार मुनि हो अब मैं तुम्हारा,
तोता जहाज तज कुत्र उड़े बिचारा ? ।।७४।।
त्यों आपके स्तवन की किरणावली है,
पाती प्रवेश मुझमें सुखदा भली है । ज्यों ज्योति पुंज रवि की प्रखरा प्रभाली,
हो रंध्र में सदन के घुसती निराली ।।७५।।
कामारिरूप तुम में मन को लगाता,
__ है वस्तुतः मुनि मनोभव को मिटाता । हो जाय नाश जब कारण का तथापि,
क्या कार्य का जनम हो जग में कदापि ?।।७६ ।।
स्वामी तुम्हें न जिसने रुचि से निहारा,
देता उसे न — 'दृग'' दर्शन है तुम्हारा । जो अन्ध है, विमल दर्पण क्या करेगा,
क्या नेत्र देकर कृतार्थ उसे करेगा? ।। ७७।।
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