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होता विलीन भवदीय उपासना में,
तो भूलता सहज ही सुख याचना मैं । जो डूबता जलधि में मणि ढूँद लाने,
क्या मांगता जलधि से मणि दे! सयाने! ।।५७।।
औचित्य! है प्रथम अम्बर को हटाया,
__ पश्चात् दिगम्बर विभो! मन को बनाया । रे! धान का प्रथम तो छिलका उतारो,
लाली उतार, फिर भात पका, उड़ालो ।।५८।।
शंका न मृत्यु भय ने सबको हराया,
संसार ने तब परिग्रह को सजाया । हे सेव्य! हे अभय! सेवक मैं विरागी,
मैं भी बनूँ अभय जो सब ग्रन्थत्यागी ।।५९।।
जो देह नेह मद को तजना कहाता ! .
___ स्वामी! अतीन्द्रिय वही सुख है सुहाता। तेरे सुशान्त मुख को लख हो रहा है, .
. ऐसा विबोध, मन का मल धो रहा है ।। ६० ।।
गंभीर सांगर नहीं शशि दर्श पाता,
गांभीर्य त्याग तट बाहर भाग आता । गंभीर आप रहते निज में इसी से,
होते प्रभावित नहीं जग में किसी से ।।६१।। .
है चाहता अबुध ही तुम पास आना,
धारे बिना नियम संयम शील बाना । धीमान कौन वह है! श्रम देख रोये,
चाहे यहाँ सुफल क्या बिन बीज बोये ।। ६२।।
शुद्धात्म में रुचि बिना शिवसाधना है,
रे निर्विवाद यह आत्मविराधना है । हो आत्मघात शिर से गिरि फोड़ने से,
तेरा यही मत इसे सुख मानने से ।। ६३ ।।
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