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________________ सरसा कासारेण विना न भवतु किन्तु सर स्तया विना भवतु । क्षायोपशमिकी मतिः क्षणिकापि चैतन्यादेव समुत्पन्नत्वाच्चिन्मयी वर्तते किन्तु यच्चैतन्यं नित्येन क्षायिकज्ञानेनापि सहितं भवत्यर्हत्सिद्धावस्थायामिति भावः ।। ८३ ।। अर्थ – हे विनाः! हे विशिष्ट नेता ! मेरी क्षणिक बुद्धि भी - क्षायोपशमिकप्रतिभा भी चैतन्यमयी है, क्योंकि वह उसी चैतन्य से उत्पन्न हुई है परन्तु जो चैतन्य है वह क्षायोपशमिक बुद्धि रूप नहीं भी है। जैसे लहरों की संतति तालाब के विना नहीं होती पर तालाब लहरों के विना भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि क्षायोपशमिक बुद्धि तो चैतन्यमयी है परन्तु चैतन्य क्षायोपशमिक बुद्धि रूप होवे भी और नहीं भी होवे ||८३|| [८४] स्तवनतोऽस्तु मितं विधिबंधनं, बहु लयेदित तेऽत्र शिवं धनम् । द्विगुणितं वसु सद्व्यवसायतः, किमपि नश्यति तत् सहसा यतः । । शिवं धनम् इत ! अत्र ते स्तंवनतः मितम् विधिबन्धनम् अस्तु ( किन्तु ) बहु लयेत्। सद्–व्यवसायतः वसु द्विगुणितम् (भवतु तत् (वसु) किमपि सहसा यतः नश्यति । स्तवनत इति - हे शिवं धनं इत! हे श्रेयो वित्तं प्राप्त! अत्र जगति ते तव स्तवनतः स्तुतेः मितमल्पं विधिबन्धनं कर्मबन्धः अस्तु भवतु किन्तु बहु विपुलं विधिबन्धनं लयेत् नश्येत्।तदेवोदाहरति यतो यस्मात्कारणात् सद्व्यवसायतः समीचीनोद्योगात् वसु धनं द्विगुणितंभवतु किन्तु तत् किमपि अल्पतरं सहसा झटिति नश्यति नष्टं भवति । यथा समीचीनव्यवसायादायोऽधिको भवति व्ययस्त्वल्पतरो जायते । एवं भगवत्स्तवनात् कर्मबन्धोऽल्पो भवति निर्जरा तु प्रचुरा जायत इति भावः । । ८४ । । अर्थ - हे कल्याणरूप धन को प्राप्त भगवन् ! इस जगत् में यद्यपि आपके स्तवन से अल्पकर्मबन्ध होता है तथापि निर्जरा अधिक होती है जैसे कि अच्छे व्यवसाय से धन दूना होता है पर शीघ्र कुछ धन नष्ट भी होता है। भावार्थ- जैसे समीचीन व्यापार में कुछ थोड़ा धन नष्ट होता है पर लाभ अधिक धन का होता है, वैसे ही जिनेन्द्र के स्तवन से कर्मबन्ध कम होता है पर निर्जरा अधिक होती है ||८४ [८५] सकलवस्तुगमा तव नासिका, परममानमयी भ्रमनाशिका । भगवतात्र ततो हि समाहिता, दृगमलाप्यचला च समाहिता । । हे जिन! तव परममानमयी सकलवस्तुगमा भ्रमनाशिका नासिका ( अस्ति ) ततः अत्र (नासिकायाम्) ( ११७)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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