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________________ अर्थ - हे कामाग्नि को शान्त करने वाले भगवन् ! देव, मनुष्य और मुनियों के द्वारा यश को प्राप्त आप में, असीम समुद्र में नदी के समान जो मेरा मन प्रविष्ट हो रहा है वह आपके परिचय - सतत गुणचिंतन से हो रहा है ||४०|| [४१] विकचकंजजयक्षमनेत्रकं, करुणकेसरकं भुवनेऽत्र कम् । मम सुदृक् सततं सहसेव ते, सरसिजं भ्रमरोऽप्यनुसेवते ।। हे! भुवनेश्वर! अत्र भुवने ते करुण - केसर - कं कं विकचकंजजयक्षम नेत्रकम् मम सुदृक् अपि सहसा सरसिजम् भ्रमरः इव अनुसेवते । विकचेति - हे भुवनेश्वर! अत्र भुवने लोकेऽस्मिन् विकचकंजजयक्षमनेत्रकं विकचं. विकसितं यत्कंजं कमलं तस्य जये क्षमे शक्ते नेत्रे नयने यस्मिन् तत् । करुणकेसरकं करुणस्य वृक्षस्य केसर इव केसरो यस्मिंस्तत् । 'करुणस्तु रसे वृक्षे' इति विश्वलोचनः । ते तव कं मस्तकं मुखमिति यावत् । मम स्तोतुः सुदृक् सुदृष्टिरपि भ्रमरः षट्पदः सरसिजमिव कमलमिव सहसा झटिति सततं शाश्वत् अनुसेवते निरन्तरं भूयो वा सेवते पश्यतीत्यर्थः ।। ४१ ।। अर्थ - जिसके नेत्र प्रफुल्ल कमल को जीतने में समर्थ हैं तथा जिस पर वृक्ष की केसर के समान केशर सुशोभित है, ऐसे आपके मुख को इस जगत् में मेरी दृष्टि भी निरन्तर सहसा उस तरह सेवित करती है, जिस तरह भ्रमर कमल को सेवित करता है। भावार्थ - जिस प्रकार भ्रमर कमल की सेवा करता है, बार-बार उस पर बैठता है, उसी प्रकार मेरी दृष्टि भी आपके मुख की सेवा करती है निहारती है ।।४१।। बार-बार उसे ही — [४२] विषयसक्तखसामजकन्दर, कुमदतापितविश्वककन्धरः । विधिवनानलकोसि भयंकरो, भयवते जगते ह्यभयङ्करः ।। हे भगवन् ! भयवते जगते अभयङ्करः असि । विषयसक्तखसामजकन्दरः कुमदतापितविश्वककन्धरः (असि) भयङ्करः विधिवनानलकः (अस्)ि। असि विषयेति - हे भगवन्! त्वं विषयसक्तखसा मजकन्दरः विषयेषु रूपादिषु सक्तानि यानि खानीन्द्रियाणि तान्येव सामजा गजास्तेषां कन्दरोऽङ्कुशः असि । 'अङ्कुशे पुंसि ( ६४ )
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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