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मतिसागर मुनिकी कथा ।
बनी रहती है वह पूर्वके संस्कारसे होती रहती है । उसले वस्तुका स्थिरपना सिद्ध नहीं हो सकता । " यह कहना भी भ्रम भरा हुआ है। देखो, नख जब सर्वथा निकाल दिया जाता है तब वह नहीं निकलता । ज्ञानमें यह बात नहीं है । उसकी सन्तति, बीच बीचमें जो अनेक तरहका ज्ञान हुआ करता है उससे बिल्कुल टूट जाती है, पर तब भी प्रत्यभिज्ञान वा स्मरणज्ञान हुआ ही करता है । इसलिए वस्तुको सर्वथा क्षणिक न मान कर कथंचित् स्थिर भी मानना चाहिए । अर्थात् वस्तु द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है और उसकी जो क्षणक्षण में अवस्था बदलती रहती है उससे वह क्षणिक भी है। मतलब यह कि वस्तु नित्यानित्य-स्वरूप है ।
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अब रही यह बात कि अवयवी कोई नहीं है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि धारण, आकर्षण आदि अवयवके बिना नहीं होते। जैसे केवल बालोंसे न गरमी मिटती है और न ठंडी हवा मिलती है। इसलिए मानना पड़ेगा कि कोई अवयवी अवश्य है । इत्यादि दोषोंके द्वारा बुद्धभिक्षुक के सिद्धान्तका जैनमुनिने अच्छी तरह खण्डन कर दिया। सच है - प्रचण्ड तेजस्वी सूर्य के सामने बेचारा जुगनु कहाँ तक ठहर सकता है। इस मानभंगसे वह बुद्ध भिक्षुक बहुत दुखी हुआ । दुखी होकर उसने निदान किया कि इस अपमानका बदला कभी न कभी मैं अवश्य लूँगा । सच है - मृत्युसे भी मानभंगका दुःख कहीं अधिक होता है । क्योंकि मृत्युका दुःख तो एक ही समय के लिए होता है, पर मानभंगका दुःख प्रतिदिन कष्ट दिया करता है ।
इसी आर्त्तध्यानसे मर कर वह यक्ष हुआ । कारण खोटे भावोंसे मरे हुए साधु, तपस्वी प्रायः कुदेव ही होते हैं। उसने कु- अविधज्ञानसे अपने यक्ष होनेका कारण जान कर गौड़शास्त्र के धर्मात्मा जनपर उपद्रव