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( ४१ ) )
सर्व विव निवारक
रक्तेक्षणं समद - कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फन-मापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेण निरस्त-शंकस्-, त्वन्नाम-नाम-दमनी हृदि मस्य पुंसः ॥ ४१ ॥ कोकिल कंठ-समान श्याम तन क्रोध जलंता,
रक्तनयन फुंकार मार विक्कण उगलंता । फण को ऊँचौ करें वेग ही सन्मुख धाया,
तब जन होंय निशंक देखि फणिपति को श्राया ॥ जो चांपे निज पग तलें, व्यापं विष न लगार । नाग दमनि तुम नाम की, है जिनके श्राधार ॥
अर्थ - हे विश्वपते ! उन्मत्त कोयल के कंठ के समान काला, क्रोध से उद्धत, लाल नेत्र किये, फण को ऊंचा उठाये भयानक सर्प आक्रमण करे तो वह मनुष्य निःशंक ( निश्चिन्त ) बना रहता है जिसके हृदय में आपके पवित्र नामरूपी सर्प- दमन करने वाली अमोघ औषधि विद्यमान है ॥४१॥
ऋद्धि - ॐ ह्रीं अहं णमो खीर - सवीणं ।
मंत्र — ॐ नमो श्रां श्रीं श्रं श्रौं श्रः जलदेवि कमले पद्मद - निवासिनी पद्मोपरि-संस्थिते सिद्धि देहि मनोवांछितं कुरु कुरु स्वाहा ।
The man, in whose heart abides the Mantra that subdues serpents, viz., Your name can intrepidly go near the snake, which has its hood expanded, eyes blood-shot, and which is haughty with anger and is black like the throat of the passionate cuckoo. 41.