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( ३७ ) दुर्जन वशीकरण
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य ।
यादक प्रभा दिनकृतः प्रहृतान्ध-कारा, तादृक्कुतो ग्रह- गणस्य विकासिनोपि ॥ ३७ ॥
जैसी महिमा तुम विषै, और धरें नहि कोय । सूरज में जो जोति है, नहि तारागण होय ॥
अर्थ - हे जिनेन्द्र देव ! इस प्रकार धर्म उपदेश देते समय अष्ट प्रातिहार्य रूप जैसी विभूति आपकी होती है उस तरह की विभूति अन्य किसी धर्म - उपदेशक के उपदेश करते समय नहीं होती । ठीक है, जैसी अन्धकारनाशिनी प्रभा सूर्य की होती है वैसी चमकते हुए भी तारों की नहीं होती ॥ ३७ ॥
ऋद्धि - ॐ ह्रीं अहं णमो सव्वोसहि पत्ताणं ।
मंत्र — ॐ नमो भगवते अप्रतिचक्रे ऐं क्लीं ब्लूं ॐ ह्रीं मनोवांछित - सिद्धयं नमो नमः अप्रतिचक्रे ह्रीं ठः ठः स्वाहा ।
The glory, which Thou attained at the time of giving instruction in religious matters, is attained, O Jinendra! by nobody else. How can the lustre of the shininig planets and stars be so (bright) as the darkness-destroying effulgence of the sun ? 37.