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प्रथम नरक पृथ्वी
प्रथम नरक पृथ्वी 1लाख 80 हज़ार योजन ऊँची है। इसमें नरक के 13 प्रतर (माले) है। तथा बीचबीच में भवनपति, परमाधामी, तिर्यंकजृम्भक देव, ऊपरी भाग में व्यंतर, वाणव्यंतर आदि देवों के भवन है। प्रथम नरक की सपाटी पर असंख्य द्वीप-समुद्र है।
चित्र में बताये अनुसार 1 लाख 80 हज़ार (A) में से ऊपर एवं नीचे 1000-1000 योजन (B) छोड़कर बीच के 1 लाख 78 हज़ार यो. में 13 नरक प्रतर है। इन 13 नरक प्रतर के 12 आंतरे होते हैं। (C) उसमें से नीचे- ऊपर के 1-1 आंतरे को छोड़कर 10 आंतरे में 10 भवनपति देवों के रमणीय एवं विशाल भवन एवं 15 परमाधामी देवों के स्थान है। (D)
1 लाख 80 हजार में से ऊपर जो 1000 योजन छोड़े थे, उनमें से ऊपर-नीचे 100-100 योजन
छोड़कर (E) बीच के 800 योजन में 8 व्यंतर देवों के आवास स्थान हैं। (F) पर-नीचे 10-10 योजन छोड़कर (G) बीच के 80 योजन में 8
ऊपर के 100 योजन में से ऊपर
वाणव्यंतर देवों के सुंदर स्थान है। (H)
ये सभी भवन बाहर से गोल अंदर से चोरस एवं नीचे से कमल की कर्णिका जैसे सुंदर है। ये भवन जंबूद्वीप, महाविदेह एवं भरतक्षेत्र जितने बड़े होते हैं। भूत, पिशाच, राक्षस आदि व्यंतर देव है। ये सभी सुखी देव है, अत्यंत केलीप्रिय है। शासन देवी-देवता भी व्यंतर निकाय के ही देव है।
आपघात आदि अकृत्रिम मृत्यु पाने वाले कुछ जीव अकाम निर्जरा द्वारा अल्प आयुष्य तथा जघन्य अवधिज्ञान वाले (व्यंतर) देव भव में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से फिरने निकले हुए भूत, पिशाच आदि देव फिरते-फिरते यहाँ आ जाते हैं एवं अवधिज्ञान से पूर्वभव का क्षेत्र देखने से पूर्वभव का वैर याद आने पर यहाँ के लोगों को हैरान भी करते हैं । ये देव आगे-आगे 25-25 योजन देखते-देखते यहाँ तक आ तो जाते हैं लेकिन पुनः अपने स्थान तक, जो उनके अवधिज्ञान के क्षेत्र की अपेक्षा से दूर होने के कारण वहाँ नहीं जा सकते हैं और यहीं पर वृक्ष आदि में अथवा मनुष्य के शरीर में प्रवेश करके जिंदगी पूरी करते हैं। स्वयं भी दुःखी होते हैं एवं दूसरों को भी दुःखी करते हैं।
भवनपति तथा परमाधामी देव के आवास स्थान समभूतला से हज़ार योजन नीचे होने की वजह से अधोलोक वासी देव कहलाते है । व्यंतर - वाणव्यंतर ऊपरी 900 योजन में होने से तिर्च्छालोक वासी देव कहलाते है।
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