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चक्रवर्ती के 14 रत्न, नव निधान एवं अट्ठम तप द्वारा आराधित देव आदि सतत सेवा में हाजिर रहते हैं । चक्री के शासन काल तक तमिस्रा एवं खण्ड प्रपाता गुफाओं के द्वार खुले रहते हैं। जब चक्रवर्ती दीक्षा लेते हैं या मृत्यु प्राप्त करते हैं । तब पुन: निधियाँ आदि स्व-स्थान में चली जाती हैं।
चक्रवर्ती की ऋद्धि : चक्रवर्ती के पास 14 रत्न होते हैं । प्रत्येक रत्न पर 1-1 हजार देवता अधिष्ठित होते हैं एवं दोनों भुजाएँ 2000 देवों से अधिष्ठित होती है। कुल 16,000 देव हमेशा सेवा में हाजिर होते हैं। 32,000 मुकुटबद्ध राजा 64,000 स्त्रियाँ, 9 निधियाँ, 72,000 श्रेष्ठनगर, 84 लाख हाथी, 84 लाख घोड़े एवं 84 लाख रथ, 96 क्रोड़ ग्राम एवं 6 खण्ड के ये मालिक होते हैं।
नव निधियों में विविध शास्त्र एवं चक्री के भोगने योग्य आभरण आदि सर्व श्रेष्ठ वस्तुएँ होती हैं। इतनी ऋद्धि वाले चक्रवर्ती यदि संसार का त्याग करे तो मोक्ष या वैमानिक देवलोक में जाते हैं। अन्यथा यह ऋद्धि उनको नरकगामी बनाती है। इस चौवीसी में 8 चक्रवर्ती मोक्ष में गये, 2 चक्रवर्ती सनत्कुमार एवं मघवा तीसरे देवलोक में गए तथा सुभूम एवं ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती सातवीं नरक में गए।
चक्री के सैन्य जब पड़ाव डालते हैं तब आत्मांगुल से 12 योजन जगह रोकते हैं। चक्रवर्ती की सेना लिए रोज वहाँ हमेशा 10 लाख मण नमक एवं 4 क्रोड मण अनाज पकता है। दस-दस हजार गाय वाले कुल 1 क्रोड गोकुल होते हैं।
महाविदेह क्षेत्र
महाविदेह क्षेत्र के मुख्य पदार्थ : मेरु पर्वत, देव - कुरु, उत्तर- कुरु, भद्रशाल वन, 16 वक्षस्कार, 12 अंतर्नदी, 32 विजय, 4 गजदंत पर्वत । प्रत्येक विजय में भरत क्षेत्र के समान छ : खण्ड, वैताढ्य पर्वत एवं गंगा-सिंधु या रक्ता रक्तवती नदी से विभाजित है।
महाविदेह क्षेत्र के मध्य में मेरु पर्वत है । निषध पर्वत के पास से दो गजदंत पर्वत निकलकर मेरु को स्पर्श करते हैं। इन दो पर्वतों के बीच का क्षेत्र देवकुरु है एवं नीलवंत पर्वत के पास से दो
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मे
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नदीं
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A विजय
B वक्षस्कार पर्वत
C विजय
D अन्तर्नदी
E जगति
F वन