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________________ वहाँ आ पहुँचा। सुनंदा को देखते ही पूर्व भव के संस्कार फिर जागृत हो गए। खुशी के मारे वह जोर-जोर से काँव-काँव करने लगा। वाजिंत्रों की मधुर आवाज़ में हो रही कौएँ की कर्कश आवाज ने रंग में भंग डालने का काम किया। क्रोधावेश में राजा ने उस कौएँ को मार गिराने का आदेश दिया और सिपाहियों के एक बाण से ही वह कौआ धराशयी हो गया। बिचारा रुपसेन! अपने मानव जन्म को तो हार गया लेकिन मिलने वाले सारे भव भी प्रेम की वासना में बर्बाद कर दिए। वहाँ से मरकर उस कौएँ ने फिर तिर्यंच योनि में जन्म लिया। अंत समय में मात्र सुनंदा के ही विचारों में मरने के कारण इस भव में भी वह उसी उद्यान में हंस के रुप में उत्पन्न हुआ। एक दिन राजा और रानी पुनः उसी उद्यान में टहलने गए। वहाँ पेड़ पर बैठे हंस ने सुनंदा को देखा तो वह उसके पीछे पागल हो गया तथा भ्रमर की तरह सुनंदा के चारों तरफ चक्कर लगाने लगा। इतने में किसी कौएँ ने राजा पर चरक(टिट) कर दी। इससे राजा ने क्रोधावेश में कहा“सैनिकों! देख क्या रहे हो ? मेरी पोशाक बिगाड़ने वाले इस कौएँ को मार गिराओ।" सैनिकों ने तुरंत बाण चढ़ाए और निशाना लगाया। परंतु उस बाण का निशाना कोई और ही बना। कौआँ तो चालाकी से उड़ गया। परंतु वह बाण सुनंदा के पीछे पागल बने हंस को जा लगा। एक भव में जिसे देखने के लिए सुनंदा की आँखें तरसती थी। आज उसी रुपसेन को अपनी आँखों के सामने बेमौत मरते देख भी वह चुपचाप खड़ी रही। निरपराधी हंस ने मरकर किसी जंगल में हिरणी की कोख से हिरण के रुप में जन्म लिया और यहाँ राजा अपनी रानी सुनंदा के साथ एक दिन उसी जंगल में शिकार के लिए गया। ___ कर्म के खेल अजब-गजब के ही होते हैं। एक बार जीव उसकी चपेट में आ जाए फिर वह जीव को दर्गति में ढकेलने में कोई कसर बाकि नहीं रखता। रुपसेन के भव में सुनंदा पर आसक्ति कर वह कर्म राजा की चपेट में आ गया। अब यह कर्म राजा हर जन्म में रुपसेन का सुनंदा से मिलन करवाकर उसे दुर्गति में ढकेलने के नये-नये उपाय ढूँढने लगा। जंगल में संगीत की महफिल का आयोजन हुआ। वाजिंत्रों के सूरों की तान से पूरे वातावरण में मादकता भर गई। जंगली हिरण संगीत के सूरों में पागल होकर वहाँ आ गए। भवितव्यता से रुपसेन का जीव भी वहाँ आ पहुँचा। चंद्र को देखकर जिस प्रकार चकोर आनंदित हो उठता है, मेघ को देखकर जिस प्रकार मयूर उल्लसित हो जाता है, वैसे ही सुनंदा को देखकर वह हिरण भी पागल हो गया। पूर्व के कई भवों का स्नेह, राग पुन: जागृत हो गया। और वह पुन: वासना के भूत का शिकार बन गया। इतने में राजा के आदेश से संगीत बंद हो गया। स्वर रुकते ही सारे हिरण वापस जंगल में भाग गए। एक मात्र रुपसेन का जीव बना हिरण ही अपनी मौत को आमंत्रण देने के लिए वहाँ खड़ा रहा। राजा ने भी मौके का फायदा उठाकर एक पल का भी विलंब किए बिना धनुष से तीर छोड़ा और दूसरे ही पल खून से लथपथ हिरण का शरीर जमीन पर गिर
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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