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________________ आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान का उपयोग लगाकर कहा 'खेद न करो। तुम्हारा भाई विद्यमान है। तुम वापस जाओ, वहीं पर तुम्हें अपने भाई मुनि मिलेंगे।' गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर वे साध्वियाँ पुन: उस अशोक वृक्ष के निकट पहुँची। वहाँ पर उन्होंने अपने भाई मुनि को देखा। वंदन करने के बाद जब साध्वीजी भगवंत ने सिंह के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा 'यह सिंह का रुप तो मैंने ही किया था।' अब कुछ समय बाद जब स्थूलिभद्र महामुनि आचार्य भगवंत के पास वाचना लेने के लिए आए तब उन्होंने कहा 'मैं तुम्हें वाचना नहीं दूंगा। क्योंकि अब अधिक ज्ञान पाने के लिए तुम योग्य नहीं हो। तुमने भी यदि अहंकार से सिंह का रुप कर लिया तो दूसरों की तो क्या बात की जाये ? अब कालक्रम से विद्या का पाचन कम होता जाएगा। विद्या भी पात्र को ही देने से लाभ का कारण बनती है,'अपात्र को दी गई विद्या स्वपर को नुकसान पहुँचाती है।' स्थूलिभद्र ने गुरुदेव के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। फिर भी गुरुदेव ने वाचना देने से इन्कार कर दिया। तत्पश्चात् संघ के अति आग्रह से भद्रबाहु स्वामी ने शेष चार पूर्वो का ज्ञान, मात्र सूत्र से प्रदान किया किंतु उनका अर्थ नहीं बतलाया। इस प्रकार मूलसूत्र की अपेक्षा से स्थूलिभद्र महामुनि चौदह पूर्वधर हुए। । _____ आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने स्थूलिभद्रजी की योग्यता देखकर उन्हें आचार्य पद प्रदान किया। आचार्य श्री स्थूलिभद्रसूरि ने ग्राम, नगर आदि में विहार कर अनेक भव्यात्माओं को प्रतिबोध दिया। वे 30 वर्ष गृहस्थावस्था में, 24 वर्ष साधु पर्याय में, 45 वर्ष युगप्रधान आचार्यपद पर रहे। वीर निर्वाण संवत् 215 में वे स्वर्गवासी हुए। ऐसे सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचर्य के स्वामी स्थूलिभद्र को धन्य हो! जिनका नाम लोग चौरासी चौवीसी तक याद करते रहेंगे तथा जिनका नाम शील साधक आत्मा प्रात: काल परमात्मा की तरह स्मरण करेगी। रुपसेन और सुनंदा र पतंग गमीनेभ सारंगा यान्ति दुर्दशाम्। एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद् दुष्टैस्तैः किं न पञ्चभिः॥ अग्नि के रुप में पागल बना पतंगियाँ उसी अग्नि में जलकर भस्म हो जाता है। कमल की सुगंध में मुग्ध बना भ्रमर कमल बंद होने तक वहीं चिपका रहता है। जिससे कमल के साथ-साथ वह भ्रमर भी किसी अन्य प्राणी का भक्षण बन जाता है। हथिनी के स्पर्श में पागल बना हाथी शिकारी के जाल में फँस जाता है। मांस के स्वाद में आसक्त बनी मछली काँटे में फँस कर अपनी जान गँवा देती है। शिकारी के मधुर संगीत में मोहान्ध बने हिरण स्वयं ही मौत को गले लगा लेते हैं। इस प्रकार ये सारे जीव, मात्र किसी एक इन्द्रिय के 130
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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