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________________ पकड़कर बंदर की तरह झुलने लगे। परंतु अथाग परिश्रम के बाद भी उनकी भुजा को झुका न सके। यह देख कृष्ण तथा बलभद्रजी चिंतातुर हो गए। उन्होंने सोचा कि यह हमसे अधिक बलवान है अत: यह हमारा सर्व राज्य ले लेगा। इतने में तो आकाश से देववाणी हुई कि, “हे कृष्ण ! तुम चिंता मत करो। अतुलबली होते हुए भी यह नेमिप्रभु बाल ब्रह्मचारी है, तथा बाईसवें तीर्थंकर है। इन्हें तुम्हारे राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है । यह तो विवाह किए बिना ही संसार - त्याग कर दीक्षा ग्रहण करेंगे।" यह वचन सुनकर आश्वस्त बने श्री कृष्ण अपने भाईयों के साथ अपने महल में लौट आए। प्रभु का विवाह : एक दिन योग्य अवसर देख अरिष्टनेमि के माता-पिता ने पुत्र के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। तब मिकुमार ने विनय पूर्वक उनकी बात टाल दी । उनके प्रत्युत्तर तथा उनके विरक्त जीवन को देखकर समुद्रविजय तथा शिवादेवी चिन्तातुर हो गए। उन्होंने श्री कृष्ण से इस विषय में बात की। उन्हें आश्वस्त कर श्री कृष्ण ने यह काम अपनी रानियों को सौंपा। श्री कृष्ण की रानियाँ एक दिन अरिष्टनेमि को जल क्रीड़ा करने ले गई। वहाँ बातों ही बातों में उन्होंने कुमार के समक्ष विवाह करने का प्रस्ताव रखा परंतु कुमार का प्रतिभाव शून्य रहा। यह देख रानियों ने नेमिकुमार को बहुत समझाया, इतना ही नहीं उन्हें कई उपालंभ भी दिए । सारी बातें सुनकर कुमार तो विरक्त ही थे। लेकिन उन्हें रानियों की बातों पर हँसना आ गया। उनकी हँसी को उनकी हामी समझकर सारी रानियाँ खुश हो गई। यह समाचार उन्होंने श्री कृष्ण, समुद्रविजय तथा शिवादेवी को भी भिजवाए। सभी के हर्ष का पार नहीं रहा । राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती को नेमिकुमार के लिए सर्वथा योग्य जानकर नेमिकुमार का विवाह उनके साथ तय कर दिया। अपने स्वजनों का हर्ष भंग न हो इसलिए नेमिकुमार वैरागी होते हुए भी मौन रहे। दोनों ओर विवाह की तैयारियाँ शुरु हो गई । विवाह के शुभ दिन छप्पन क्रोड़ यादव तथा और भी करोड़ों मनुष्यों के साथ नेमकुमार की बारात निकली। इस तरफ राजीमती भी अपने भाग्य को सराहने लगी । सहसा उसकी दाहिनी आँख और भुजा फड़कने लगी। कुछ अनिष्ट होने की आशंका से उसका हृदय धड़कने लगा। बारात महल के निकट पहुँचने ही वाली थी। इतने में नेमिकुमार की दृष्टि वाडे में बंधे, भय से व्याकुल तथा करुण रुदन करने वाले पशुओं पर पड़ी। उन्होंने सारथी से पूछा " हे सारथी ! इन पशुओं को यहाँ इस तरह क्यों बांध कर रखा है ?” प्रत्युत्तर में सारथी ने कहा - "स्वामी! आपके विवाह प्रसंग पर आए अनेक राजामहाराजाओं के भोजनार्थ इन्हें यहाँ बांधा गया है। " यह सुनते ही नेमिकुमार का हृदय द्रवित हो उठा। करुणार्द्र प्रभु ने सोचा, “इतने जीवों की हिंसा 116
SR No.002438
Book TitleJainism Course Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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