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नेमिनाथ प्रभु का चरित्र श्री नेमिनाथ प्रभु इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में बाईसवें तीर्थंकर हुए। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शौरीपुर नगर में समुद्रविजय राजा राज्य करते थे। उनकी पटरानी शिवादेवी की कुक्षि में कार्तिक वद बारस के दिन अपराजित नामक विमान से देव आयुष्य पूर्ण कर नेमिनाथ प्रभु का च्यवन हुआ। परमात्मा के अतिशय से माता ने चौदह महास्वप्न देखे। श्रावणसुद पंचमी के दिन नौ महिने तथा साढ़े सात दिन का गर्भकाल पूर्ण कर चित्रा नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर उन्होंने पुत्र रत्न को जन्म दिया। देवकृत जन्माभिषेक के पश्चात् माता-पिता ने महोत्सव पूर्वक पुत्र का जन्मोत्सव तथा नामकरण किया। शिवामाता ने पंद्रहवें स्वप्न में अरिष्ट रत्न से बना चक्र देखा था। इससे पुत्र का नाम 'अरिष्टनेमि' रखा गया। आयुधशाला में गमन तथा कृष्ण के साथ बल परीक्षा
___ अरिष्टनेमि श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। कालानुक्रम से बाल्यावस्था पूर्ण कर अरिष्टनेमि युवावस्था को प्राप्त हुए। एक दिन दंडनेमि, दृढ़नेमि, रथनेमि और अन्य राजकुमारों के साथ अरिष्टनेमि क्रीड़ा करने बाहर गए। घूमते-घूमते वे श्री कृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने श्री कृष्ण के चक्र, शंख आदि आयुधों को देखा। वे उनका स्पर्श करने के लिए आगे बढ़ ही रहे थे, इतने में आयुधशाला के रक्षक ने उन्हें प्रणाम करके कहा, “राजकुमार! यद्यपि आप श्री कृष्ण के भाई है। प्रबल पराक्रमी है तथापि आप अभी तक बहुत छोटे है। यह शस्त्र आदि उठाना आपके लिए असंभव है। उठाना तो दूर इनका स्पर्श भी अत्यंत मुश्किल है। इन सब आयुधों को मात्र श्री कृष्ण ही उठा सकते है एवं वे ही इन सबका उपयोग कर सकते है।"
यह सुनकर अरिष्टनेमि कुमार ने सहजतापूर्वक श्री कृष्ण के चक्र को उठाकर उसे कुंभार के चक्र की तरह घुमाया। सारंग धनुष को कमल की नाल की भाँति झुका दिया। उनके गदे को एक सामान्य लकड़ी की तरह कंधे पर रखा। इतना ही नहीं अंत में जब उन्होंने श्री कृष्ण का पँचजन्य शंख फूंका। तब उसके गुंजन से पूरी पृथ्वी काँपने लगी। नगर के सारे लोग बहरे जैसे हो गए। यहाँ तक कि श्री कृष्ण तथा बलभद्र भी घबरा गए। वे व्याकुल बनकर सोचने लगे कि, “यह कौन बलवान है, जिसने संपूर्ण पृथ्वी को कँपा दिया?" तब सैनिकों द्वारा सारी परिस्थिति जानकर वे भी आश्चर्य चकित बन आयुधशाला में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अरिष्टनेमि के साथ बल परीक्षा करने का निर्णय लिया। क्षत्रिय के योग्य खेल के रुप में दोनों ने एक दूसरे की भुजा झुकाने का निर्णय किया। सर्वप्रथम श्री कृष्ण ने अपनी भुजा लंबाई, तब अरिष्टनेमि ने मात्र एक अंगुली से उनकी भुजा को झुका दिया। जब अरिष्टनेमि ने अपनी भुजा लंबाई, तब श्री कृष्ण उसे