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बार कृष्णचरित्र नेमिचरित्र के एकदेश के रूप में मिलता है । इसके अलावा पाण्डवों के साथ एवं पाण्डव-कौरव-युद्ध के साथ कृष्ण का घनिष्ठ संबंध होने से कृष्ण के चरित्र के साथ महाभारत की कथा भी ग्रथित होती थी । फलस्वरूप ऐसी रचनाओं का जैन महाभारत ऐसा भी एक नाम प्रचलित था । इस प्रकार सामान्यतः जिस अंश को प्राधान्य दिया गया हो उसके अनुसार कृष्णचरित्र विषयक रचनाओं का अरिष्टनेमिचरित्र या नेमिपुराण', हरिवंश, पाण्डव पुराण), "जैन महाभारत - आदि नाम दिये जाते थे । किन्तु इस विषय में एकवाक्यता नहीं है । अमुक विशिष्ट अंश को सामान्य प्राधान्य देनेवाली कृतियों के भिन्न भिन्न नाम भी मिलते हैं । जैसे कि आरम्भ में सूचित किया था, जैन पुराणकथाओं का स्वरूप पर्याप्त मात्रा में रुढिबद्ध एवम् परंपरानियत था । दूसरी ओर हिन्दी कृतियों में भी विषय, वस्तु आदि में संस्कृत, - प्राकृत तथा अपभ्रंश की पूर्व प्रचलित रचनाओं का अनुसरण होता था । इसलिए यहाँ पर हिन्दी कृष्ण-काव्य का विवरण एवं आलोचना प्रस्तुत करने से पहले जैन-परम्परा की मान्य कृष्ण-कथा की एक सर्वसाधाराण रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक होगा । इससे उत्तरवर्ती आलोचना आदि के लिए आवश्यक संदर्भ सुलभ हो जाएँगे । नीचे दी गई रूपरेखा सन् ७८४ में दिगम्बराचार्य जिनसेन रचित संस्कृत हरिवंश पुराण के मुख्यतः ३३, ३४, ३५, ३६, ४० और ४१ सर्गो पर आधारित है । श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के सन् ११६५ के करीब रचे हुए .संस्कृत “त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित” के आठवें पर्व में भी सविस्तार कृष्ण-चरित है । जिनसेन के वृत्तान्त से हेमचन्द्र का वृत्तान्त कुछ भेद रखता है । कुछ महत्त्व की विभिन्नताएँ पाद-टिप्पणी में सूचित की गई हैं । हरिवंशपुराण का संकेत हपु०" और त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र का संकेत “त्रिच०" रखा है । कृष्णचरित्र अत्यन्त विस्तृत होने से यहाँ पर उसकी सर्वांगीण समालोचना करना संभव नहीं है । जैन कृष्णचरित के स्पष्ट रूप से दो भाग किए जा सकते हैं । कृष्ण और यादवों के द्वारावती प्रवेश तक एक भाग और शेष चरित का दूसरा भाग । पूर्वभाग में कृष्ण जितने केन्द्रवर्ती हैं उतने उत्तर भाग में नहीं हैं।
(२) जैन कृष्ण-कथा की रूपरेखा
__ हरिवंश में जो कि हरिराजा से शुरु हुआ था, कालक्रम से मथुरा में यदु नामक राजा हुआ । उसके नाम से उसके वंशज यादव कहलाए । यदु का पुत्र नरपति हुआ और नरपति के पुत्र शूर और सुवीर । सुवीर
42 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास