SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य पाँचवीं-छठ्ठीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक पनपा और बाद में भी उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सौ पाँच सौ वर्ष तक बहता रहा । इतने दीर्घ समय-पट पर फैले हुए साहित्य की हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त त्रुटित है । पहली बात तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व की एक भी अपभ्रंश कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है । प्रायः तीन सौ साल का प्रारंभिक कालखण्ड सारा का सारा अन्धकार से आवृत सा है । और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प उपलब्ध हैं । दूसरा यह कि अपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की एकाध ही कृति बची है और वह भी ठीक उत्तरकालीन है । ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाम मात्र से भी हम वंचित हैं । इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य का चित्र अच्छी तरह धुंधला और कई स्थलों पर तो बिलकुल कोरा है । तीसरा यह कि अपभ्रंश का बचा हुआ साहित्य बहुत करके धार्मिक साहित्य है, और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जैन साहित्य है । जैनेतर-हिन्दू एवं बोद्ध-साहित्य की और शुद्ध साहित्य की केवल दो-तीन रचनाएँ मिली हैं । इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन-प्राय है और इस बात का श्रेय जैनियों की ग्रन्थ सुरक्षा की व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए । यदि ऐसी परिस्थिति न होती तो अप्रभंश साहित्य का चित्र और भी खंडित एवं एकांगी रहता। ___ इस सिलसिले में एक बात का भी निर्देश करना होगा । जो कुछ अपभ्रंश साहित्य बच गया है उसमें भी बहुत थोड़ा अंश अब तक प्रकाशित हो सका है। बहुत सी कृतियाँ भाण्डारों में हस्तलिखित प्रतियों के ही रूप में होने से असुलभ हैं । इन सब के कारण अपभ्रंश साहित्य के कोई एकाध अंग या पहलू का भी वृत्तान्त तैयार करने में अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं और फलस्वरूप वह वृत्तान्त अपूर्ण एवं त्रुटक रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है । यह तो हुई सर्व-साधारण अपभ्रंश साहित्य की बात । फिर यहाँ पर हमारा सीधा नाता कृष्ण-काव्य के साथ है । अतः हम उसकी बात लेकर चलें। भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंश का उत्कर्ष काल है, वही कृष्ण-काव्य का मध्याह्नकाल है । संस्कृत एवम् प्राकृत में 30 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy