________________
भाई को खोकर वासुदेव, अंजना और राजपुरोहित के साथ आगे बढ़े । द्वारावती की सीमा पर पहुँच कर वे एक झाडी के नीचे विश्राम करने लगे और अंजना तथा राजपुरोहित को गाँव से कुछ खाद्यान्न लाने के लिए भेज दिया । इतने में जरा नामक पारधी ने दूर से झाडी को हिलती देखकर वन्य पशु के भ्रम के भाला फेंका जिससे वासुदेव का पदतल बिंध गया उनकी आर्तवाणी सुनकर जरा उनके सामने प्रकट हुआ और पश्चात्ताप करने लगा । वसुदेव ने उसे समझाया - " पछताने की कोई बात नहीं है । मेरे पूर्वज कहते थे कि जरा से बिंध कर मेरी मृत्यु होगी ।"
I
इतने में अंजना और राजपुरोहित गाँव से लौटे । वासुदेव ने उन्हें एक विद्या सिखाई और फिर उनका प्राणान्त हो गया ।
इस प्रकार वासुदेव के कुल में अंजना के अतिरिक्त सब का नाश हो गया । (३) जैन साहित्य में कृष्ण जैन साहित्य की परम्परा
जैन साहित्य परम्परागत रूप में तीर्थंकर महावीर (ई. पूर्व सन् ५९९ - ५३७ ) की देशना से सम्बद्ध है । मान्यतानुसार महावीर के प्रमुख शिष्य (गणधर गौतम इन्द्रभूति ने जिनवाणी को बारह अंग ग्रन्थों एवं चौदह पूर्वी के रूप में व्यवस्थित किया था ।
-
जो साधु इस वाणी का अवधारण कर सका, वह 'श्रुतकेवली कहलाया । 'श्रुत केवल शब्द से यह ध्वनित है कि जिनवाणी प्रारम्भ में श्रुत रूप में ही सुरक्षित रही । जिस प्रकार वेद-वेदांग बहुत समय तक श्रुत रूप में रहे, लगभग वही स्थिति प्रारम्भ में जैन साहित्य की भी थी । श्रुत केवली केवल पांच ही हो सके, जिनमें अंतिम भद्रबाहु थे । '
भद्रबाहु ( ई. पू. ३२५) के समय मगध में बारह वर्ष का भयंकर दुर्मिक्ष पड़ा इस समय भद्रबाहु अपने साधु संघ के साथ मगध से चले गए थे । दुर्मि की इस लम्बी अवधि में सूत्र के लुप्त होते जाने का खतरा उत्पन्न हो गया । अतः दुर्मिक्ष के पश्चात् भद्रबाहु स्वामी की अनुपस्थिति में पाटलीपुत्र नगर में मुनि स्थूलभद्र की अध्यक्षता में श्रमण संघ आयोजित किया गया और इसमें लुप्त होते जा रहे सूत्रों को व्यवस्थित एवं संकलित करने का प्रयास किया गया । इस प्रयास में प्रथम ग्यारह अंग ग्रन्थ ही
१ - श्वेतांबर मान्यतानुसार
दिगम्बर मान्यतानुसार
प्रभव स्वामी, शभव, यशोभद्र,
पाँच श्रुत केवली हैं सम्भूत विजय, भद्रबाहु । आर्यविष्णु (नन्दि), नन्दिमित्र, भद्रबाहु (जैन धर्म का मौलिक
अपराजित, आर्य गोवर्धन,
'इतिहास : आचार्य श्री हस्तिमलजी महाराज, खण्ड २, पृ. ३१५
-
21 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप - विकास