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________________ बाल्यावस्था से ही कृष्ण शारीरिक बल में आदर्श थे । उनके सहज बल के प्रभाव से वृन्दावन हिंस्र प्राणियों से सुरक्षित बन गया था । उसी बल के कारण पूतना, कालियनाग, चम्पक, कंस के मल्ल व स्वयं कंस आदि मारे गए थे । बल का परिमार्जित रूप शस्त्र विद्या में दिखलाई पड़ता है जिसके कारण उस समय का क्षत्रिय समाज उनको सर्वप्रधान शस्त्रविद मानता था । कोई भी योद्धा उनको कभी भी पराजित नहीं कर पाया । कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि योद्धागण एवं काशी, कलिंग, पौन्ड्रक, गान्धार, प्रभृति बहुतेरे राजाओं के साथ उनका युद्ध हुआ जिसमें उन्होंने सबको पराजित किया । श्रीकृष्ण के वीर पुरुष के ऐतिहासिक व्यक्तित्व ने कालान्तर में देवत्व का स्वरूप धारण कर लिया और अवतारवाद के विकास क्रम में कृष्ण विष्णु के अवतार रूप में प्रतिष्ठित हुए । उनकी पूजा-अर्चनाने एक सम्प्रदाय का रूप धारण किया, जो वासुदेव मत, भागवत सम्प्रदाय अथवा वैष्णव मत आदि नामों से जाना गया । कृष्ण इस सम्प्रदाय में स्वयं भगवान वासुदेव रूप में पूज्य हुए । महाभारत में कृष्ण का स्वरूप चित्रण इस धारणा के अनुरूप है। जैन कथा के नायक कृष्ण भी वासुदेव हैं। वे अमित वैभव व शक्ति से सम्पन्न द्वारका के राजा हैं । जैन परम्परा में कृष्ण की वासुदेव संज्ञा बिरुद सूचक है, ठीक वैसे ही जैसे चक्रवर्ती, विक्रमादित्य आदि ऐतिहासिक बिरुद रहे हैं । जैन-परम्परानुसार वासुदेव राजा अर्द्धचक्रवर्ती राजा माना गया है । जैन-साहित्य में ऐसे नौ वासुदेव राजाओं का वर्णन हुआ है जिनमें द्वारकाधीश कृष्ण अंतिम वासुदेव कहे गए हैं। पुराणों के अध्ययन से यह नतीजा निकलता है कि कृष्ण संबंधित जो समस्त पाप-कथा जन समाज में प्रचलित हो गई है वह समस्त ही निर्मल है और मनगढन्त कथाओं को बाहर निकाल देने पर कृष्ण चरित्र में जो कुछ शेष बचता है वह अति विशुद्ध, परम पवित्र एवं महान है । श्रीकृष्ण जैसा सर्वगुण-सम्पन्न, सर्वपाप-संस्पर्शशून्य आदर्श व्यक्तित्व अन्यत्र कहीं भी नहीं है - न किसी देश के इतिहास में है और न किसी देश के काव्य में है। जैनागमों में कृष्ण के गोकुल-प्रवास की कथा तथा कृष्ण के बाल-गोपाल स्वरूप का वर्णन नहीं है । आचार्य जिनसेन से पहले जैन साहित्य में श्रीकृष्ण की महत्ता दो स्वरूपों में ही प्रस्तुत हुई मिलती है - एक शलाकापुरुष के रूप में और दूसरे आध्यात्मिक पुरुष के रूप में । आचार्य जिनसेन ने सर्वप्रथम शायद वैष्णव परम्परा तथा हरिवंश पुराण से 162 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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