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________________ • ५४ दान : अमृतमयी परंपरा सुपात्र को दान देने से मनुष्य धनवान बनता है । वह धनवान व्यक्ति उस दान के प्रभाव से वापस (पुनः) धर्म करता है, पुण्य के प्रभाव से वह पुण्यशाली ऐसे देवलोक में निवास करता है । पुनः वह धनवान के घर जन्म लेता है और फिर से पुण्य भोगता है। विश्व के सभी धर्मों में दान शब्द मिलता है, इससे सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि दान का अर्थ क्या है ? 'दीयते इति दानम्' । दान का सामान्य अर्थ 'देना है' इस प्रकार के दान बिना जगत का एक भी व्यवहार नहीं चलता । सभी जगह पहले दान देना पड़ता है। ___ 'प्रथम देते हैं तभी बाद में मिलता हैं । देने के बाद बदले में लेने की भावना सभी को होती है। इसीलिये देते हैं उससे कुछ ज्यादा ही सभी जगह प्राप्त करते हैं.... 'मनुष्य लेते है उससे कुछ कम ही देते हैं, प्रकृति लेती है उससे ज्यादा वापस देती है।' उपनिषद् के एक प्रसंग में कहा है – देव, असुर-मनुष्यों ने मिलकर एक बार ब्रह्मा से पूछा – हमें कर्त्तव्य-ज्ञान दीजिये । हम क्या करें ? ब्रह्मा ने 'द' 'द' 'द' की ध्वनी की । देवताओं ने इसका आशय समझा - इन्द्रिय 'दमन' करो । असुरों ने इसका अर्थ लगाया - जीवों पर 'दया' करो। मनुष्यों को बोध प्राप्त हुआ – 'दान' करो। सहज ही प्रश्न उठता है कि वह दान है क्या चीज ! उसका लक्षण क्या है ? उसकी परिभाषा क्या है तथा उसकी व्याख्या और स्वरूप क्या है ? दान के शाब्दिक अर्थ के अनुसार हम 'दीयते इति दानम्' जो दिया जाता है वह दान है, यही अर्थ करेंगे तो बहुत-सी आपत्तियाँ आएगी। इसलिए इसकी वास्तविक परिभाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। जैन दृष्टि से दान शब्द का लक्षण और व्याख्याएँ : जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वान एवं सूत्र शैली में आद्य ग्रन्थ प्रणेता तत्त्वार्थ
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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