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तृतीय अध्याय
दान की परिभाषा और लक्षण
भारत के समस्त धर्मों ने 'दान' को एक महान धर्म माना है। दान की व्याख्या अलग हो सकती है, दान की परिभाषा विभिन्न हो सकती है, परन्तु 'दान एक प्रशस्त धर्म' है । यह सभी स्वीकारते हैं । दान धर्म उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन मानव-जाति है । मानव जाति में दान कब से प्रारम्भ हुआ ? इसका उत्तर देना मुश्किल है । परन्तु इस सत्य को सभी स्वीकार करते हैं कि दान का पूर्व रूप सहयोग ही रहा होगा । संकट के अवसर पर मनुष्यों ने एकदूसरे को पहले सहयोग देना ही सीखा होगा । सह-अस्तित्व के लिए परस्पर सहयोग आवश्यक भी था। क्योंकि समाज में सभी प्रकार के मनुष्य होते थे श्रीमंत और गरीब, राजा और रंक । श्रीमंत पुरुष ही अपने जीवन को सुचारु रूप से चला सकता था और वह गरीब साथी की मदद भी कर सकता था । यह परस्पर 'सहयोग' समानता के आधार पर किया जाता था और बिना किसी प्रकार की शर्त के किया जाता था। भगवान महावीर ने अपनी भाषा में परस्पर के इस 'सहयोग को 'संविभाग' कहा था। संविभाग का अर्थ है - सम्यक् रूप से विभाजन करना । जो कुछ तुम्हे उपलब्ध हुआ है, वह सब तुम्हारा अपना ही नहीं है, परन्तु तुम्हारे साथी का तथा तुम्हारे पड़ौसी का भी उसमें सहभाव तथा सहयोग रहा हुआ है। महावीर के इस 'संविभाग' में न अहं का भाव था और न दीनता का भाव | इसमें एक मात्र समत्वभाव ही विद्यमान है । लेनेवाले के मन में भी ग्लानि नहीं है क्योंकि वह अपना ही हक ग्रहण कर रहा है और देने वाला भी यही समझ रहा है कि मैं यह देकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूँ । लेनेवाला मेरा अपना ही स्नेही है । यह भाईचारे की भावना रहती है ।
बाद में आया 'दान' शब्द । इसमें न सहयोग की सहृदयता है और न