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________________ ४६ दान : अमृतमयी परंपरा सदा सफल है और पण्डितजन भी उसकी प्रशंसा करते हैं । इस प्रकार लक्ष्मी को अनित्य जानकर जो उसे निर्धन धर्मात्मा व्यक्तियों को देता है और बदले में प्रत्युपकार की वांछा नहीं करता उसका जीवन सफल है।"१ ।। उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है, उसी व्यक्ति का धन और जीवन सफल होता है, जिसने धन या साधनों को जोड़-जोड़कर पत्थरों की तरह जमीन में न गाड़कर भूखे-प्यासे अनाथ, अपाहिज दयापात्रों या गरीब धर्मात्मा व्यक्तियों को मुक्तहस्त से दिया है। इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक कहता है "Life means giving" जीवन का अर्थ है - दान देना । इस सम्बन्ध में एक और उदाहरण याद आ जाता है। गुजरात में जैसे जगडूशाह हुए हैं, वैसे महाराष्ट्र में शिराल सेठ भी दानवीर हुए हैं। एक बार जब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा तो उन्होंने अपने धन और अन्न के भण्डार खोलकर लाखों अभावग्रस्त लोगों को धन और अन्न मुक्तहस्त से दिया, इससे उन लाखों लोगों को जीवनदान मिला और शिराल सेठ. ने अपने धन और जीवन को सफल किया । जब शिराल सेठ की दानवीरता की बात मुगल बादशाह के कानों में पहुची, तो उन्होंने दरबार में बुलाकर उनका बहुत सत्कार-सम्मान किया और कहा - "कुछ माँगो।" . शिराल सेठ को अपने दान के बदले में किसी वस्तु के लेने की इच्छा नहीं थी, किन्तु बादशाह के द्वारा बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने साढे तीन घड़ी के लिए राज्य मागा । बादशाह ने उन्हें साढे तीन घड़ी के लिए राज्य दे दिया । उतने ही समय में उन्होंने जगह-जगह सदाव्रत खोले, कोई भी बेकार न रहे, इसका प्रबन्ध कराया । मन्दिर, मस्जिद और धर्मस्थानों के लिए दी हुई १. जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण-सामाणियं कुणदि ॥१४॥ जो वडढ़माण-लच्छिं अणवरयं देदि धम्मकज्जेसु।। सो पंडियेहि थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥१९॥ एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्मजुत्ताणं। निरवेक्खो तं देहि हु तस्स हवे जीविअं सहलं ॥२०॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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