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दान का महत्त्व और उद्देश्य
जायेंगी।" अन्तत: उसे एक विचार सूझा और उसने चोबदारों से कहा – “मेरी अर्थी निकाली जायें, उस समय मेरे दोनों हाथ जनाजे (अर्थी) से बाहर रखे जायें, ताकि दुनियाँ यह नसीहत ले सके कि इतना धन या जमीन अपने कब्जे में करने पर भी इन्सान मरने के बाद खाली हाथ जाता है। साथ में कुछ नहीं ले जा सकता।" उन्होंने ऐसा ही किया। निष्कर्ष यह हैं कि जो धन अपने हाथों से दान में दे दिया जाता है, वही सार्थक है, वही अपना है।
"जो लक्ष्मी पानी में उठने वाली तरंगों के समान चंचल है, दो-तीन दिन ठहरने वाली है, उसका सदुपयोग यही है कि दयालु होकर योग्य पात्र को दान दिया जाये । ऐसा न करके जो मनुष्य लक्ष्मी का केवल संचय ही करता रहता है, न उसे जघन्य, मध्यम और उत्तम पात्रों में दान देता है, वह अपनी आत्मवंचना करता है। उसका मनुष्य जन्म पाना वृथा है।"१
. इसीलिए क्रियाकोषकार ने तो बहुत ही कठोर शब्दों में उसे फटकारा है, जो धन का दान न देकर यों ही पड़ा रखता है या गाड़े रखता है -
"जानौ गद्ध-समान, ताकै सुतदारादिका।
जो नहीं करे सुदान, ताकै धन आमिष समा ॥" . - जो दान नहीं करता, उसका धन माँस के समान है और उस धन का उपभोग करनेवाले पुत्र-स्त्री आदि गिद्दों की मण्डली के समान है।
जो मनुष्य रात-दिन ममत्वपूर्वक उसका संग्रह करता रहता है। समय आने पर उसका दान नहीं करता, उसका जीवन पशु-पक्षियों या कीड़े-मकोड़ों की तरह निष्फल है। इसी सन्दर्भ में कार्तिकेयानुप्रेक्षा में सुन्दर चिन्तन दिया है
"जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके पृथ्वी के गहरे तल में उसे गाड़ देता है, वह उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है । जो मनुष्य अपनी बढ़ती हुई लक्ष्मी का निरन्तर धर्मकार्यों में दान कर देता है, उसकी ही लक्ष्मी ।
१. लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण ।
जा जलतरंग चवला दो-तिण्णि दिणाई चिढेई ॥१२॥ जो पुण लच्छि संचदि णय देदि पत्तेसु । सो अप्पाणं वंचदि, मणुयत्तं णिफलं तस्स ॥१३॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा