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. ॥ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ॥
।। ॐ ऐं नमः ।।
प्रथम अध्याय
दान विचार विषयप्रवेश
दान के विषय में आचार्यश्री हरिभद्रसूरि कहते हैं -
"धमस्य आदि पदं दानं" "ददाति इति दानं" - जरूरतमंद को दिया जाता है वो दान । "दीयते इति दानं" - जो दिया जाता है वह दान ।
ऋग्वेद में भी दान के बारे में कहा गया है -इन्सान की दौलत बेमानी बन जाती है अगर उसका उपयोग नहीं करें और बाटे नहीं - "The wealth of a person becomes meaningless if it is not distributed and utilized.'
__ भारतीय संस्कृति धर्मप्रधान होने से उसमें दान की विशेष महिमा है । दान की परम्परा ठेट दर्शनों से लेकर आज तक प्राप्त होती है।
दान का अर्थ यह है कि स्व की मानी जानेवाली वस्तु पर से अपना मालिकाना हक्क छोड़कर वह हक्क दूसरों को आनंद से अर्पित कर देना । इस तरह से किया गया दान व्यक्ति की त्याग भावना को विकसित करता है । त्याग को हर एक धर्म में एक महत्त्व की धर्मप्रवृत्ति का स्थान दिया गया है । दान में मानवधर्म की भावना, त्याग की भावना और अन्य को सहायक होने की भावना समाई हुई है। दान के फल के विषय में "उपदेश प्रधान" ग्रंथ में कहा है।
फलं यच्छति दातृभ्यो दानं नात्रास्ति संशयः फलं तुल्यं दादात्ये तदाश्चर्यम् त्वनुमोदकम् ।।
1. Rigveda