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दान : अमृतमयी परंपरा
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भी निषेध किया है -
“आव नहीं, आदर नहीं, नहीं नैनों में नेह ।
तुलसी वा घर न जाइए, कंचन बरसे मेह ॥"
गालियों और अपशब्दों के साथ जहाँ दान मिलता हो, वहाँ भला कौन स्वाभिमानी पुरुष दूसरी बार जाना चाहेगा? ।
सचमुच दान के साथ मधुर वाक्य अमृत का-सा काम करते हैं और दाता को यशस्वी, आशीर्वाद से युक्त, सद्भावना से सम्पन्न बनाते हैं, जबकि कटु वाक्य विष का-सा काम करते हैं, घृणा फैलाते हैं और भविष्य में द्वेष और वैर भी बढ़ा देते हैं।
और दान का पाँचवाँ दूषण है - पश्चात्ताप । दाता के मन में दान देने के बाद उसका पश्चात्ताप होना भी दान के फल को मिट्टी में मिलाना है। कई कृपणवृत्ति के लोगों की आदत होती है कि वे पहले तो किसी स्वार्थ या लोभ के वश किसी व्यक्ति को दान देने में प्रवृत्त होता है, किन्तु जब उसका स्वार्थ या लोभ पूर्ण नहीं होता या उसकी आकांक्षा पूरी नहीं होती, तब वे दिये गये दान के विषय में पछतावा करते हैं। उनका मानसिक सन्ताप इतना बढ़ जाता है कि वे भविष्य में किसी भी व्यक्ति को दान देने के लिए उत्साहित नहीं होते।
राजगृही के मम्मण सेठ के पास ९९ करोड़ की सम्पत्ति थी, फिर भी उसकी तृष्णा मिटी नहीं। उसने अपने सब लड़कों को थोड़ी-थोड़ी पूजी देकर अलग व्यापार करने और अपना गुजारा चलाने के लिए अलग कर दिया । सब लड़के मम्मण सेठ के संकुचित रवैये से तंग आकर अपने स्त्री-बच्चों सहित अर्थोपार्जन के लिए परदेश चले गये। बाद में मम्मण ने अपनी सारी सम्पत्ति को हीरे-पन्नों आदि से जड़ित बैल बनाने में लगा दी। उस बैल को देखकर उसके मन में उसकी जोड़ी का दूसरा बैल बनाने की धुन लगी और इसके लिए वह सर्दी, गर्मी, बरसात एवं अधेरी रात की परवाह न करके कसकर मेहनत करने लगा। राजा श्रेणिक को जब पता लगा तो उसे दरबार में बुलाकर उसे बढ़िया बैल देने को कहा, पर वह उस बैल से कहाँ सन्तुष्ट हो सकता था? उसने राजा श्रेणिक को अपने यहाँ ले जाकर तलघर में हीरे-पन्ने आदि से जड़ित बैल