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.. दान : अमृतमयी परंपरा लाभ है ? आवश्यकचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि में वर्णन है - भगवान महावीर ने जब देखा कि एक दीन-हीन ब्राह्मण गिड़गिड़ाकर अपनी दीनावस्था प्रगट कर रहा है, तब उसके साथ तर्क-वितर्क नहीं की, न यह कहा कि यह (दारिद्रय) तो तेरे कर्मों का फल है, मैं क्या कर सकता हूँ या तू तो सुपात्र नहीं है आदि, किन्तु अनुकम्पा लाकर अपने कन्धे पर पड़े हुए देवदूष्य वस्त्र का आधा हिस्सा उसे दे दिया। . .
__इसी प्रकार दान देते समय विलम्ब नहीं करना चाहिए । दान में विलम्ब करने का मतलब है - दान देने की आन्तरिक इच्छा या उत्साह नहीं है, बिना मन से दान दिया जा रहा है अथवा अपने द्रव्य के प्रति उसका ममत्व गाढ़ है, उसका ममत्व छूटा नहीं है देय द्रव्य के प्रति । ।
रामकृष्ण परमहंस के पास एक दिन एक साधक आया और कहने लगा - "स्वामी जी ! मुझे संसार छोड़ना है। मैं आपसे सन्यास लेना चाहता हूँ
और आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ। मैं अपनी कमाई की सर्वस्व पूजी एक हजार रुपये लाया हूँ, उन्हें आपके चरणों में अर्पण करना चाहता हूँ। आप इसका
जैसा उपयोग करना चाहें करें ।" परमहंस ने एक हजार की थैली ग्रहण किये बिना ही आगन्तुक से कहा- "मैं यह ठीक समझता हूं कि इस थैली को गंगामैया (नदी) को भेंट कर आओ।" साधक ने इस अप्रत्याशित उत्तर से चकित होकर पछा - "क्या. गंगा मैया को?" परमहंस ने वही वाक्य दोहराया। बेचारा साधक भारी कदमों से गंगा नदी की ओर चला । गुरु की आज्ञा जो हुई थी। किसी तरह अनमने भाव से गंगा के तट पर बैठकर उसने थैली का मुंह खोला
और उसमें से एक रुपया निकाला और गंगा में फेंक दिया, फिर दूसरा रुपया निकाला और उसे भी फेंका । इस प्रकार एक-एक करके उसने सब रुपये नदी में फेंक दिये । खाली थैली लेकर वह परमहंस के पास लौटा और कहने लगा - "आपके आदेशानुसार सारे रुपये गंगाजी में डाल आया हूँ।" परमहंस ने पूछा - "इतनी देर कहाँ और कैसे लगा दी, इन रुपयों को फेंकने में ?" "मैंने एक-एक रुपया निकाला और फेंका था, इसी से इतनी देर हो गई।" साधक ने कुछ हिचकते हुए उत्तर दिया ।
परमहंस बोले - "तब तुम हमारे काम के नहीं हो।" साधक समझ